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Wednesday, 18 October 2017
Thursday, 10 August 2017
माँ
भारती की स्वाधीनता और देश में त्याग और बलिदान का जज्बा पैदा करने के लिए
सर्वोच्च बलिदान देने वाले अमर क्रांतिकारी खुदीराम बोस के शहादत दिवस पर
भावभीनी श्रद्धांजलि।
फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।
खुदीराम बोस (बांग्ला: ক্ষুদিরাম বসু ; जन्म: १८८९ - मृत्यु : १९०८) भारतीय स्वाधीनता के लिये मात्र १९ साल की उम्र में हिन्दुस्तान की आजादी के लिये फाँसी
पर चढ़ गये। कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि वे अपने देश के लिये फाँसी
पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे।
लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि खुदीराम से पूर्व १७ जनवरी १८७२ को ६८ कूकाओं
के सार्वजनिक नरसंहार के समय १३ वर्ष का एक बालक भी शहीद हुआ था। उपलब्ध
तथ्यानुसार उस बालक को, जिसका नम्बर ५०वाँ था, जैसे ही तोप के सामने लाया
गया, उसने लुधियाना
के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढी कसकर पकड ली और तब तक नहीं छोडी
जब तक उसके दोनों हाथ युवा
तलवार से काट नहीं दिये गये बाद में उसे उसी तलवार से
मौत के घाट उतार दिया गया था।
अनुक्रम
जन्म व प्रारम्भिक जीवन
खुदीराम का जन्म ३ दिसंबर १८८९ को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। उनकी माता
का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने
की ऐसी लगन लगी कि नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़े। छात्र जीवन से ही ऐसी लगन मन में लिये इस नौजवान ने हिन्दुस्तान
पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त करने के
संकल्प में अलौकिक धैर्य का परिचय देते हुए पहला बम फेंका और मात्र १९ वें
वर्ष में हाथ में भगवद गीता लेकर हँसते - हँसते फाँसी के फन्दे पर चढकर इतिहास रच दिया।
क्रान्ति के क्षेत्र में
स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पैफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। १९०५ में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।
राजद्रोह के आरोप से मुक्ति
फरवरी १९०६ में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी लगी हुई
थी। प्रदर्शनी देखने के लिये आसपास के प्रान्तों से सैंकडों लोग आने लगे।
बंगाल के एक क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ द्वारा लिखे ‘सोनार बांगला’ नामक
ज्वलंत पत्रक की प्रतियाँ खुदीरामने इस प्रदर्शनी में बाँटी। एक पुलिस वाला
उन्हें पकडने के लिये भागा। खुदीराम ने इस सिपाही के मुँह पर घूँसा मारा
और शेष पत्रक बगल में दबाकर भाग गये। इस प्रकरण में राजद्रोह के आरोप में
सरकार ने उन पर अभियोग चलाया परन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट
गये।
इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार २८ फरवरी १९०६ को खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिये गये लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गये। १६ मई १९०६ को उन्हें रिहा कर दिया गया।
६ दिसंबर १९०७ को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर बच गया। सन १९०८ में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
न्यायाधीश किंग्जफोर्ड को मारने की योजना
मिदनापुर
में ‘युगांतर’ नाम की क्रांतिकारियों की गुप्त संस्था के माध्यम से
खुदीराम क्रांतिकार्य पहले ही में जुट चुके थे। १९०५ में लॉर्ड कर्जन ने जब
बंगाल का विभाजन किया तो उसके विरोध में सडकों पर उतरे अनेकों भारतीयों को
उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया। अन्य
मामलों में भी उसने क्रान्तिकारियों को बहुत कष्ट दिया था। इसके
परिणामस्वरूप किंग्जफोर्ड को पदोन्नति देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश
के पद पर भेजा। ‘युगान्तर’ समिति कि एक गुप्त बैठक में किंग्जफोर्ड को ही
मारने का निश्चय हुआ। इस कार्य हेतु खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी का चयन
किया गया। खुदीरामको एक बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्लकुमार को भी एक
पिस्तौल दी गयी। मुजफ्फरपुर में आने पर इन दोनों ने सबसे पहले किंग्जफोर्ड
के बँगले की निगरानी की। उन्होंने उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देख
लिया। खुदीराम तो किंग्जफोर्ड को उसके कार्यालय में जाकर ठीक से देख भी आए।
अंग्रेज अत्याचारियों पर पहला बम
३०
अप्रैल १९०८ को ये दोनों नियोजित काम के लिये बाहर निकले और किंग्जफोर्ड
के बँगले के बाहर घोडागाडी से उसके आने की राह देखने लगे। बँगले की निगरानी
हेतु वहाँ मौजूद पुलिस
के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनाँ उन्हें योग्य उत्तर
देकर वहीं रुके रहे। रात में साढे आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की
बग्घी के समान दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने
लगे। रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने
आते ही खुदीराम ने अँधेरे में ही आगे वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम
फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक
सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा योरोप में भी सुनी
गयी जब वहाँ इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया। यूँ तो खुदीराम ने
किंग्जफोर्ड की गाडी समझकर बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोडी देर
से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया। दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने के
कारण दो यूरोपियन स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पडे। खुदीराम तथा
प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों - रात नंगे पैर भागते हुए गये और २४ मील दूर
स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।
गिरफ्तारी
अंग्रेज
पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को
पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे
दी जबकि खुदीराम पकड़े गये। ११ अगस्त १९०८ को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र १८ साल + थी।
फाँसी का आलिंगन
दूसरे दिन सन्देह होने पर प्रफुल्लकुमार चाकी को पुलिस पकडने गयी, तब
उन्होंने स्वयं पर गोली चलाकर अपने प्राणार्पण कर दिये। खुदीराम को पुलिस
ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित ही था। ११ अगस्त १९०८
को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी - खुशी फाँसी चढ गये।
किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रांतिकारियों को उसने कष्ट
दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत भी हो गयी।
फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।
स्मारक का उद्घाटन
क्रान्तिवीर
खुदीराम बोस का स्मारक बनाने की योजना कानपुर के युवकों ने बनाई और उनके
पीछे असंख्य युवक इस स्वतन्त्रता-यज्ञ में आत्मार्पण करने के लिये आगे आये।
इस प्रकार के अनेक क्रान्तिकारियों के त्याग की कोई सीमा नहीं थी।
लोकप्रियता
मुज़फ्फरपुर
जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फाँसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था,
उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर
फाँसी के तख़्ते की ओर बढ़ा था। जब खुदीराम शहीद हुए थे तब उनकी आयु 18
वर्ष थी। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे
उनके नाम की एक ख़ास किस्म की धोती बुनने लगे।
उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक
योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में
मुखरित हुआ। उनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के
लोक गायक आज भी गाते हैं।
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
Friday, 28 July 2017
दार्शनिक
शिक्षाशास्त्री,लेखक, अनुवादक,मुद्रक, प्रकाशक, उद्यमी, सुधारक के रूप में
योगदान करने वाले ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी की पुण्यतिथि पर सादर नमन।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (बांग्ला में, ঈশ্বর চন্দ্র বিদ্যাসাগর), के बचपन का नाम ईश्वर चन्द्र बन्दोपाध्याय था। वे बंगाल
के पुनर्जागरण के स्तम्भों में से एक थे। इनका जन्म पश्चीम बंगाल में हुआ
था, करमाटांड़ इनकी कर्मभूमी थी। वे उच्चकोटि के विद्वान थे। उनकी विद्वता
के कारण ही उन्हें विद्दासागर की उपाधि दी गई थी।
वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही कलकत्ता में एवं अन्य स्थानों में बहुत अधिक बालिका विद्दालयों की स्थापना हुई।
उस समय हिन्दु समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत ही सोचनीय थी। उन्होनें विधवा पुनर्विवाह के लिए लोगमत तैयार किया। उन्हीं के प्रयासों से 1856
ई. में विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र का
विवाह एक विधवा से ही किया। उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया।
विद्यासागर एक दार्शनिक, शिक्षाशास्त्री, लेखक, अनुवादक, मुद्रक, प्रकाशक, उद्यमी, सुधारक एवं मानवतावादी व्यक्ति थे। उन्होने बांग्ला
भाषा के गद्य को सरल एवं आधुनिक बनाने का उनका कार्य सदा याद किया जायेगा।
उन्होने बांग्ला लिपि के वर्णमाला को भी सरल एवं तर्कसम्मत बनाया। बँगला
पढ़ाने के लिए उन्होंने सैकड़ों विद्दालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं
की भी व्यवस्था की। उन्होंने सेस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास
किया। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में पाश्चात्य चिंतन का अध्ययन भी आरंभ
किया।
अनुक्रम
आरंभिक जीवन
शिक्षक जीवन
शैक्षणीक जिवन मे वे बहूत ही बुध्दीमान विद्यार्थी थे.
सुधारक के रूप में
इन्हे
सुधारक के रूप में राजा राममोहन राय का उत्तराधिकारी माना जाता हैं।
इन्होने विधवा पुनर्विवाह के लिए आंदोलन किया और सन 1856 में इस आशय का
अधिनियम पारित कराया। 1856-60 के मध्य इन्होने 25 विधवाओ का पुनर्विवाह
कराया। इन्होने नारी शिक्षा के लिए भी प्रयास किए और इसी क्रम में Baithun
स्कूल की स्थापना की तथा कुल 35 स्कूल खुलवाए।
Wednesday, 19 July 2017
स्वतंत्रता संघर्ष के अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटी कोटी नमन
बटुकेश्वर दत्त
बटुकेश्वर दत्त (नवंबर १९०८ - १९ जुलाई १९६५) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।
जीवनी
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला - नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।
8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद
भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का
विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के
माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय
स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक
सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के
कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।
इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12
जून 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के
बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और
बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन
कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों
के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी
मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी
को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई
के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी
जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख
हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में
लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे
दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।
आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना
में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान
परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई 1965 को नई
दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची पटना
में रहती हैं। बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार
कहते हैं कि 'स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की
खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।' मातृभूमि के लिए
इस तरह का जज्बा रखने वाले नौजवानों का इतिहास भारतवर्ष के अलावा किसी
अन्य देश के इतिहास में उपलब्ध नहीं है।
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
Salutations to the Great Revolutionary of 1857 Indian Freedom Struggle Mangal Pandey on his Birth Anniversary !
Mangal Pandey was an Indian soldier who played a key part in events immediately preceding the outbreak of the Indian rebellion of 1857. He was a sepoy (sipahi) in the 34th Bengal Native Infantry (BNI) regiment of the British East India Company.
While contemporary British opinion considered him a traitor and
mutineer, Pandey is widely regarded as a hero in modern India. In 1984,
the Indian government issued a postage stamp to commemorate him. His life and actions have also been portrayed in several cinematic productions.
Contents
Early life
Mangal Pandey was born on 19 July 1827 in a Brahmin family in Nagwa, a village of upper Ballia district, Ceded and Conquered Provinces (now in Uttar Pradesh).He had joined the Bengal Army in 1849. Pandey was a soldier in the 6th Company
of the 34th Bengal Native Infantry and is primarily known for his
attack on several British officers. This incident marked an opening
stage in the Indian rebellion of 1857.
The 1857 incident
At Barrackpore on the afternoon of 29 March 1857, Lieutenant Baugh, Adjutant
of the 34th Bengal Native Infantry (BNI), was informed that several men
of his regiment were in an excited state. Further, it was reported to
him that one of them, Mangal Pandey, was pacing in front of the
regiment's guard room by the parade ground, armed with a loaded musket,
calling upon the men to rebel and threatening to shoot the first
European that he set eyes on. Baugh immediately buckled on his sword,
placed loaded pistols in his holsters, mounted his horse, and galloped
to the lines. Pandey took position behind the station gun, which was in
front of the quarter-guard of the 34th, took aim at Baugh and fired. He
missed Baugh, but the bullet struck his horse in the flank, and horse
and rider were brought down. Baugh quickly disentangled himself and,
seizing one of his pistols, advanced towards Pandey and fired. He
missed. Before Baugh could draw his sword, Pandey attacked him with a talwar
(a heavy Indian sword) and closing with the adjutant, slashed Baugh on
the shoulder and neck and brought him to the ground. It was then that
another sepoy, Shaikh Paltu, intervened and tried to restrain Pandey even as he tried to reload his musket.
English Sergeant-Major Hewson, had arrived on the parade ground, summoned by a native officer, before Baugh. He had ordered Jemadar Ishwari Prasad, the Indian officer in command of the quarter-guard, to arrest Pandey. To this, the jemadar stated that his NCOs had gone for help and that he could not take Pandey by himself.
In response Hewson ordered Ishwari Prasad to fall in the guard with
loaded weapons. In the meantime, Baugh had arrived on the field shouting
'Where is he? Where is he?' Hewson in reply called out to Baugh, 'Ride
to the right, sir, for your life. The sepoy will fire at you!' At that point Pandey fired.
Hewson had charged towards Pandey as he was fighting with Lieutenant
Baugh. While confronting Pandey, Hewson was knocked to the ground from
behind by a blow from Pandey's musket. The sound of the firing had
brought other sepoys from the barracks; they remained mute spectators.
At this juncture, Shaikh Paltu, while trying to defend the two
Englishmen called upon the other sepoys to assist him. Assailed by other
sepoys, who threw stones and shoes at his back, he called on the guard
to help him hold Pandey, but they threatened to shoot him if he did not
let go of the mutineer.
Some of the sepoys of the quarter-guard then advanced and struck at
the two prostrate officers. They then threatened Shaikh Paltu and
ordered him to release Pandey, whom he had been vainly trying to hold
back. However, Paltu continued to hold Pandey until Baugh and the
sergeant-major were able to get up. Himself wounded by now, Paltu was
obliged to loosen his grip. He backed away in one direction and Baugh
and Hewson in another, while being struck with the butt ends of the
guards' muskets.
In the meantime, a report of the incident had been carried to the
commanding officer General Hearsey, who then galloped to the ground with
his two officer sons. Taking in the scene, he rode up to the guard,
drew his pistol and ordered them to do their duty by seizing Mangal
Pandey. The General threatened to shoot the first man who disobeyed. The
men of the quarter-guard fell in and followed Hearsey towards Pandey.
Pandey then put the muzzle of the musket to his chest and discharged it
by pressing the trigger with his foot. He collapsed bleeding, with his
regimental jacket on fire, but not mortally wounded.
Pandey recovered and was brought to trial less than a week later.
When asked whether he had been under the influence of any substances, he
stated steadfastly that he had mutinied on his own accord and that no
other person had played any part in encouraging him. He was sentenced to
death by hanging, along with Jemadar Ishwari Prasad, after three Sikh members of the quarter-guard testified that the latter had ordered them not to arrest Pandey.
Mangal Pandey's execution was scheduled for 18 April, but was carried
out ten days before that date. Jemadar Ishwari Prasad was executed by
hanging on 21 April.
Aftermath
The 34th B.N.I. Regiment was disbanded "with disgrace" on 6 May as a
collective punishment, after an investigation by the government, for
failing to perform their duty in restraining a mutinous soldier and
their officer. This came after a period of six weeks while petitions for
leniency were examined in Calcutta. Sepoy Shaikh Paltu was promoted to havildar
(sergeant) for his behavior on 29 March but was murdered in an isolated
part of the Barrackpore cantonment shortly before the regiment was
disbanded.
The Indian historian Surendra Nath Sen
notes that the 34th B.N.I. had a good recent record and that the Court
of Enquiry had not found any evidence of a connection with unrest at Berhampur
involving the 19th B.N.I. four weeks before (see below). However,
Mangal Pandey's actions and the failure of the armed and on-duty sepoys
of the quarter-guard to take action convinced the British military
authorities that the whole regiment was unreliable. It appeared that
Pandey had acted without first taking other sepoys into his confidence
but that antipathy towards their British officers within the regiment
had led most of those present to act as spectators rather than obey
orders.
Motivation
The personal motivation behind Pandey's behaviour remains confused.
During the incident itself he shouted to other sepoys: "come out - the
Europeans are here"; "from biting these cartridges we shall become
infidels" and "you sent me out here, why don't you follow me". At his
court-martial he stated that he had been taking bhang and opium, and was not conscious of his actions on 29 March.
There were a wide range of factors causing apprehension and mistrust
in the Bengal Army immediately prior to the Barrackpore event. Pandey's
reference to cartridges is usually attributed to a new type of bullet cartridge used in the Enfield P-53 rifle
which was to be introduced in the Bengal Army that year. The cartridge
was thought to be greased with animal fat, primarily from cows and pigs,
which could not be consumed by Hindus and Muslims
respectively (the former a holy animal of the Hindus and the latter
being abhorrent to Muslims). The cartridges had to be bitten at one end
before use. The Indian troops in some regiments were of the opinion that
this was an intentional act of the British, with the aim of defiling
their religions.
Commandant Wheeler of the 34th BNI was known as a zealous Christian
preacher. The wife of Captain William Halliday of the 56th BNI had the Bible printed in Urdu and Devanagari
and distributed among the sepoys, thus raising suspicions amongst them
that the British were intent on converting them to Christianity.
The 19th and 34th Bengal Native Infantry were stationed at Lucknow during the time of annexation of Oudh
in 1856 because of alleged misgovernment by the Nawab. The annexation
had negative implications for sepoys in the Bengal Army (a significant
portion of whom came from that princely state). Before the annexation,
these sepoys had the right to petition the British Resident at Lucknow
for justice — a significant privilege in the context of native courts.
As a result of the East India Company's action they lost that special
status, since Oudah no longer existed as a nominally independent
political entity.
The 19th B.N.I. is important because it was the regiment charged with
testing the new cartridges on 26 February 1857. However, right up to
the mutiny the new rifles had not been issued to them, and the
cartridges in the magazine of the regiment were as free of grease as
they had been through the preceding half century. The paper used in
wrapping the cartridges was of a different colour, arousing suspicions.
The non-commissioned officers of the regiment refused to accept the
cartridges on 26 February. This information was conveyed to the
commanding officer, Colonel Mitchell; he took it upon himself to try to
convince the sepoys that the cartridges were no different from those
they had been accustomed to and that they need not bite it. He concluded
his exhortation with an appeal to the native officers to uphold the
honour of the regiment and a threat to court-martial
such sepoys as refused to accept the cartridge. However, the next
morning the sepoys of the regiment seized their bell of arms (weapons
store). The subsequent conciliatory behaviour of Mitchell convinced the
sepoys to return to their barracks,
A Court of Enquiry was ordered which, after an investigation lasting
nearly a month, recommended the disbanding of the regiment. The same was
carried out on 31 March. The 19th BNI were allowed to retain their
uniforms and were provided by the Government with allowances to return
to their homes.
Consequences
The attack by and punishment of Pandey is widely seen as the opening
scene of what came to be known as the Indian Rebellion of 1857.
Knowledge of his action was widespread amongst his fellow sepoys and is
assumed to have been one of the factors leading to the general series of
mutinies that broke out during the following months. Mangal Pandey
would prove to be influential for later figures in the Indian
Nationalist Movement like V.D. Savarkar, who viewed his motive as one of
the earliest manifestations of Indian Nationalism. Modern Indian
nationalists portray Pandey as the mastermind behind a conspiracy to
revolt against the British, although a recently published analysis of
events immediately preceding the outbreak concludes that "there is
little historical evidence to back up any of these revisionist
interpretations".
Film, stage and literature
A film based on the sequence of events that led up to the mutiny entitled Mangal Pandey: The Rising starring Indian actor, Aamir Khan along with Rani Mukerji, Toby Stephens and Amisha Patel, directed by Ketan Mehta was released on 12 August 2005.
The life of Pandey was the subject of a stage play titled The Roti Rebellion,
which was written and directed by Supriya Karunakaran. The play was
organized by Sparsh, a theatre group, and presented in June 2005 at The
Moving Theatre at Andhra Saraswat Parishad, Hyderabad, Andhra Pradesh.
Samad Iqbal, a fictional descendant of Mangal Pandey, is a central character in Zadie Smith's debut novel White Teeth. Pandey is an important influence on Samad's life and is repeatedly referenced and investigated by the novel's characters.
English language
In the English language, Pandey is best remembered for the word his surname and his actions helped coin: pandy
— a traitor, particularly a rebellious sepoy of the Mutiny of 1857.
Once a colloquial term widely used by English speakers in India, the
word is now obsolete.
Commemoration
The Government of India commemorated Pandey by issuing a postage
stamp bearing his image on 5 October 1984. The stamp and the
accompanying first-day cover were designed by Delhi-based artist C. R.
Pakrashi.
A park is named Shaheed
Mangal Pandey Maha Udyan to commemorate the place where Pandey attacked
British officers and was hanged, at Barrackpore road in Barrackpore
sub-divisional town in North 24 Parganas district.
Sources From Wikipedia
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Monday, 10 July 2017
I pay my tribute on the Birth Anniversary of india's Freedom Fighter Baba Kanshi Ram. We salute Baba Kanshi Ram for his emphasis on social reform and remember his writing and poetry that ignites the spark of patriotism among people.
Baba Kanshi Ram (11 July 1882 – 15 October 1943) was an Indian poet and activist for independence born in the Indian state of Himachal Pradesh.
Contents
Early life and family
At the age of seven, he married Sarasvati Devi who, at that time, was just five years old. He continued his studies in the local village. Soon, he lost both of his parents, and at the age of thirteen, relocated to Lahore in search of work.
It was here that he first met many revolutionary activists, including Lala Lajpat Rai, Lala Hardayal, Sardar Ajit Singh and Maulavi Barkatullah.
Independence campaign
Kangra Valley was hit by the 1905 Kangra earthquake. Kanshi Ram took an active part in a team led by Lala Lajpat Rai. Later, in 1911, attended the Delhi Durbar.
The turning point for him came in 1919, when the Jallianwala Bagh Massacre occurred, while he was in Amritsar. After this incident, he returned home to Kangra and started spreading Mahatma Gandhi's message through his poetry and songs in the Pahari languages. He was first arrested on 5 May 1920 and spent the following two years in Dharamshala jail along with Lala Lajpat Rai. He was released on 11 November 1922.
He was again arrested while reciting self-composed poems at a
gathering in Palampur. He was arrested 11 times and spent nine years in
various jails. He continued writing poetry against the British
administration in jail.
The title Pahari Gandhi was given to him by Pandit Jawaharlal Nehru at a rally in Hoshiarpur in 1937.
The death sentences handed out to Bhagat Singh, Rajguru and Sukhdev
in 1931 had a great impact on him. He vowed to wear black clothes until
India achieved its independence. He adhered to his vow until he died on 15 October 1943 and came to be known affectionately as the Siahposh General (General in Black).
Poetry
Baba Kanshi Ram used his poetry to protest against the British Raj. His verses landed him in jail numerous times.
An anthology
of 500 of his poems, eight short stories and a novelette, covering a
number of subjects, including metaphysics, mysticism, romance and
hardships of farmers of Himachal.
Some of his poems are:
- Angrez Sarkar Da Tigha Par Dhiare ("The British Government is on Her Last Legs")
- Smaj nee roya ("Society, Do Not Shed Tears")
- Nikke, nikke mahnua jo dukh bara bhari ("Great Sorrows of Small People")
- Ujari kangre des jana ("Kangra will be Destroyed")
- Mera suneha bhukhyan nangiyan yo ("My Call to the Hungry and Poor")
- Na kar gallan munuan kanne jaane diyan ("Oh Lad, Do Not Talk about Going Together")
- Kanshi ra suneha ("Call from Kanshi")
He was conferred the title of Bulbul-e-pahar (Nightingale of the hills) by Sarojini Naidu, who was herself called the Nightingale of India.
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