श्री गुरु तेग बहादुर जी
श्री गुरु तेग बहादुर जीसिखों के नवें गुरू थे। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है
"धरम हेत साका जिनि कीआ सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।
आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे।
धर्म प्रचार
गुरुजी ने धर्म के सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ से गुरुजी धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहाँ साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
यहाँ से गुरुजी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिक स्तर पर धर्म का सच्चा ज्ञान बाँटा। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों की कटु आलोचना कर नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए। उन्होंने प्राणी सेवा एवं परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि लोक परोपकारी कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं के बीच 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोबिन्दसिंहजी बनें।
गुरुजी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गुरुजी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं 'भै काहू को देत नहि'। नहि भय मानत आन।' वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
इधर 27 दिसम्बर सन् 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावतसिंह व फतेहसिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई सन् 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।
गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं 'मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं।' अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है।
इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ। वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं। सिखों के दस गुरू हैं।
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