स्वतंत्रता संग्राम में भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में धमाका कर
अंग्रेज़ी हुकूमत को दहलाने वाले अग्रणी भूमिका निभाने वाले महान
राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की की पुण्यतिथि पर उन्हें
कोटि-कोटि नमन।
बटुकेश्वर दत्त: एक क्रांतिकारी की दर्दनाक कहानी, जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज!
Batukeshwar
Dutt Death Anniversary: देश की आजादी के लिए कालापानी सहित करीब 15 साल
तक जेल की सजा काटने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के फैन थे शहीद-ए-आजम
भगत सिंह (Bhagat Singh), लेकिन आजादी (Independence) मिलने के बाद हमारे
सिस्टम ने उनके साथ कैसा सलूक किया. पुण्यतिथि पर इस महान क्रांतिकारी को
श्रद्धांजलि.
बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) ऐसे महान क्रांतिकारी हैं जिनके फैन शहीद-ए-आजम भगत सिंह
(Bhagat Singh) भी थे. तभी तो उन्होंने लाहौर (Lahore) सेंट्रल जेल में
दत्त का ऑटोग्राफ लिया था. लेकिन आजाद भारत की सरकारों को दत्त की कोई
परवाह नहीं थी. इसका जीता जागता उदाहरण उनका जीवन संघर्ष है. देश की आजादी
के लिए करीब 15 साल तक सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद
भारत (India) में नौकरी के लिए भटकना पड़ा. उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का
एजेंट बनना पड़ा तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर पटना की सड़कों पर घूमना पड़ा.
जिस आजाद भारत में उन्हें सिर आंखों पर बैठाना चाहिए था उसमें उनकी घोर
उपेक्षा हुई.
'गुमनाम नायकों की गौरवशाली गाथाएं' नामक अपनी किताब में
विष्णु शर्मा ने दत्त के बारे में विस्तार से लिखा है. उनके मुताबिक दत्त
के दोस्त चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, 'क्या दत्त जैसे कांतिकारी को
भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में
जन्म देकर भारी भूल की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को
स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच
गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है
और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'
कहां हुआ था जन्म
बटुकेश्वर दत्त,
बर्धमान (बंगाल) से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को औरी नामक एक गांव
में पैदा हुए थे. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आए और वहां उनकी
मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई. वह 1928 में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने. यहीं पर उनकी भगत सिंह से मुलाकात हुई.
उन्होंने बम बनाना सीखा. दोनों क्रांतिकारियों में दोस्ती कितनी गहरी थी
इसकी एक मिसाल हुसैनीवाला में देखने को मिलती है.
तत्कालीन बिहार सरकार ने नहीं दिया ईलाज पर ध्यान
1964 में बटुकेश्वर दत्त बीमार पड़े. पटना के सरकारी
अस्पताल में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था. जानकारी मिलने पर पंजाब सरकार
ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी
सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का ईलाज नहीं हो सकता तो
राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है.
इस पर बिहार सरकार हरकत में आई. दत्त का इलाज शुरू किया गया लेकिन तब तक
देर हो चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली (Delhi) लाया गया. यहां
पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं
सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह
स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे.
दोस्ती की ऐसी मिसाल कहां मिलेगी?
बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया.
बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं.
कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती
आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा
है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया
जाए.' 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर वो यह दुनिया छोड़ चुके थे.
बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार
भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की
समाधि के पास किया गया.
भगत सिंह की जेल डायरी के पेज नंबर 67 पर बटुकेश्वर दत्त का ऑटोग्राफ
भगत सिंह स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त के प्रशंसक थे. इसका एक सबूत उनकी जेल डायरी में है. उन्होंने बटुकेश्वर दत्त का एक ऑटोग्राफ लिया था. बटुकेश्वर और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे. बटुकेश्वर के लाहौर जेल से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह जेल के सेल नंबर 137 में उनसे मिलने गए थे. यह तारीख थी 12 जुलाई 1930. इसी दिन उन्होंने अपनी डायरी के पेज नंबर 65 और 67 पर उनका ऑटोग्राफ लिया. डायरी की मूल प्रति भगत सिंह के वंशज यादवेंद्र सिंह संधू के पास है. शहीद भगत सिंह ब्रिगेड के अध्यक्ष और उनके प्रपौत्र संधू ने बताया कि शहीद-ए-आजम बटुकेश्वर दत्त को अपना सबसे खास दोस्त मानते थे. यह ऑटोग्राफ भगत सिंह का उनके प्रति सम्मान था. शायद दोनों ने भांप लिया था कि अब उनकी मुलाकात नहीं होगी. इसलिए यह निशानी ले ली.
कालापानी की सजा हुई थी
ब्रिटिश पार्लियामेंट (British Parliament) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया. मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार संपन्न करने का. दत्त और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इसका विरोध करना चाहते थे. दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेंबली में दो बम फोड़े और गिरफ्तारी दी. बटुकेश्वर ही सेंट्रल असेंबली में बम ले गए थे. यादवेंद्र संधू कहते हैं कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर बम फेंकने के अलावा सांडर्स की हत्या का इल्जाम भी था. इसलिए उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई. जबकि बटुकेश्वर को काला पानी की सजा हुई. उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया. उन्होंने कालापानी की जेल के अंदर भूख हड़ताल की.
वहां से 1937 में वे बांकीपुर सेंट्रल जेल, पटना लाए गए. 1938 में वो रिहा हो गए. फिर वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. इसलिए दत्त को दोबारा गिरफ्तार किया गया. चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. 1947 में देश आजाद हो गया. उस वक्त वो पटना में रह रहे थे.
यहां उन्हें गुजर-बसर करने के लिए सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा. टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी. उनकी पत्नी अंजली को एक निजी स्कूल में पढ़ाना पड़ा. पूरे सरकारी सिस्टम उनका कोई सहयोग नहीं किया. दत्त ने पटना में बस परमिट के लिए अप्लीकेशन दी. वहां कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगकर तिरस्कार किया.
फांसी न होने से निराश थे दत्त
भगत सिंह के साथ फांसी न होने से बटुकेश्वर दत्त निराश हुए थे. वह वतन के लिए शहीद होना चाहते थे. उन्होंने भगत सिंह तक यह बात पहुंचाई. तब भगत सिंह ने उनको पत्र लिखा कि "वे दुनिया को ये दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सह सकते हैं." भगत सिंह की मां विद्यावती का भी बटुकेश्वर पर बहुत प्रभाव था, जो भगत सिंह के जाने के बाद उन्हें बेटा मानती थीं. बटुकेश्वर लगातार उनसे मिलते रहते थे.
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