Friday, 31 July 2015

"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर  रहूँगा " 

"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर 

रहूँगा " 


‪‎हिन्दुस्तान‬ के प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी, हिन्दू राष्ट्रवाद के पितामाह बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि‬ पर शत् शत् नमन |

बाल गंगाधर तिलक (जन्म: २३ जुलाई १८५६ - मृत्यु:१ अगस्त १९२०) हिन्दुस्तान के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे। इन्होंने सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्णस्वराज की माँग उठायी। इनका यह कथन कि "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है।

प्रारम्भिक जीवन
तिलक का जन्म २३ जुलाई १८५६ को ब्रिटिश भारत में वर्तमान महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी जिले के एक गाँव चिखली में हुआ था। ये आधुनिक कालेज शिक्षा पाने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में थे। इन्होंने कुछ समय तक स्कूल और कालेजों में गणित पढ़ाया। अंग्रेजी शिक्षा के ये घोर आलोचक थे और मानते थे कि यह भारतीय सभ्यता के प्रति अनादर सिखाती है। इन्होंने दक्खन शिक्षा सोसायटी की स्थापना की ताकि भारत में शिक्षा का स्तर सुधरे।
स्वतंत्रता संग्राम
लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति का एक दुर्लभ चित्र जिसमें बायें से लाला लाजपतराय, बीच में तिलक जी और सबसे दायें बिपिनचन्द्र पाल बैठे हैं
तिलक ने मराठी में मराठा दर्पण व केसरी नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किये जो जनता में बहुत लोकप्रिय हुए। तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की बहुत आलोचना की। इन्होंने माँग की कि ब्रिटिश सरकार तुरन्त भारतीयों को पूर्ण स्वराज दे। केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया।
तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन जल्द ही वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के विरुद्ध बोलने लगे। १९०७ में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी। गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे। इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा। १९०८ में तिलक ने क्रान्तिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसकी वजह से उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) की जेल भेज दिया गया। जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गये और १९१६ में एनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रूल लीग की स्थापना की।
समाज सुधार 
तिलक ने भारतीय समाज में कई सुधार लाने के प्रयत्न किये। वे बाल विवाह के विरुद्ध थे। उन्होंने हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। महाराष्ट्र में उन्होंने सार्वजनिक गणेशोत्सव की परम्परा प्रारम्भ की ताकि लोगों तक स्वराज का सन्देश पहुँचाने के लिए एक मंच उपलब्ध हो सके। भारतीय संस्कृति, परम्परा और इतिहास पर लिखे उनके लेखों से भारत के लोगों में स्वाभिमान की भावना जागृत हुई। उनके निधन पर लगभग दो लाख लोगों ने उनकी अंत्येष्टि में हिस्सा लिया।

मृत्यु

सन १९१९ ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिये स्वदेश लौटने के समय तक तिलक इतने नरम हो गये थे कि उन्होंने मॉन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के ज़रिये स्थापित लेजिस्लेटिव कौंसिल (विधायी परिषद) के चुनाव के बहिष्कार की गान्धी की नीति का विरोध ही नहीं किया। इसके बजाय तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिये प्रतिनिधियों को यह सलाह अवश्य दी कि वे उनके प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग की नीति का पालन करें। लेकिन नये सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही १ अगस्त,१९२० ई. को बम्बई में उनकी मृत्यु हो गयी। मरणोपरान्त श्रद्धांजलि देते हुए गान्धी जी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा और जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रान्ति का जनक बतलाया। "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" का नारे देने वाले हिन्दू राष्ट्रवाद के पितामह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का 1 अगस्त,1920 ई. को मुम्बई में देहान्त हुआ था।[1]

पुस्तकें

तिलक ने यूँ तो अनेक पुस्तकें लिखीं किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोत्कृष्ट है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

उनकी लिखी हुई सभी पुस्तकों का विवरण इस प्रकार है

  • वेद काल का निर्णय (The Orion)
  • आर्यों का मूल निवास स्थान (The Arctic Home in the Vedas)
  • श्रीमद्भागवतगीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र
  • वेदों का काल-निर्णय और वेदांग ज्योतिष (Vedic Chronology & Vedang Jyotish)
  • हिन्दुत्व
  • श्यामजीकृष्ण वर्मा को लिखे तिलक के पत्र


उनकी समस्त पुस्तकें मराठी अँग्रेजी और हिन्दी में लोकमान्य तिलक मन्दिर, नारायण पैठ, पुणे से सर्वप्रथम प्रकाशित हुईं। बाद में उन्हें अन्य प्रकाशकों ने भी छापा।
















Thursday, 30 July 2015

गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर देशवासियों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ । 

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 


गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर देशवासियों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ । 


गुरु को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। शास्त् वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का 
संहार भी करता है।

आज आषाढ़ मास की पूर्णिमा है इसको ही गुरू पूर्णिमा कहते हैं । इस
 दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है । इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं । ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं । न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं । जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।
गुरू पूर्णिमा का यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे ।
'राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूँ तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥'

गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है । ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है । गुरु की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है । भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं । भारतीय संस्कृति के वाहक शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक । गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है । अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है। गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी है ।  बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है ।
भारत भर में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर कृतकृत्य होता था। आज भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारंपरिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में, संगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है । इस पावन पर्व पर मंदिरों में पूजा होती है, पवित्र नदियों में स्नान होते हैं, जगह जगह भंडारे होते हैं और मेले लगते हैं ।
'हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय ।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय ॥'

आप कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं । देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती ।
एक सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं । आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं । गुरुमेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं । गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं । गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है ।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी गुरुपूर्णिमा का विशेष महत्व है। जिन लोगों की कुंडली में गुरुप्रतिकूल स्थान पर होता है, उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है। वे लोग यदि गुरु पूर्णिमा के दिन नीचे लिखे उपाय करें तो उन्हें इससे काफी लाभ होता है। यह उपाय इस प्रकार हैं-

(१)- भोजन में केसर का प्रयोग करें और स्नान के बाद नाभि तथा मस्तक पर केसर का तिलक लगाएं।

(२)- साधु, ब्राह्मण एवं पीपल के वृक्ष की पूजा करें।

(३)- गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान के जल में नागरमोथा नामक वनस्पति डालकर स्नान करें।

(४)- पीले रंग के फूलों के पौधे अपने घर में लगाएं और पीला रंग उपहार में दें।

(५)- केले के दो पौधे विष्णु भगवान के मंदिर में लगाएं।

(६)- गुरु पूर्णिमा के दिन साबूत मूंग मंदिर में दान करें और 12 वर्ष से छोटी कन्याओं के चरण स्पर्श करके उनसे आशीर्वाद लें।

(७)- शुभ मुहूर्त में चांदी का बर्तन अपने घर की भूमि में दबाएं और साधु संतों का अपमान नहीं करें।

(८)- जिस पलंग पर आप सोते हैं, उसके चारों कोनों में सोने की कील अथवा सोने का तार लगाएं ।
'सदगुरु जिसे मिल जाय सो ही धन्य है जन मन्य है।
सुरसिद्ध उसको पूजते ता सम न कोऊ अन्य है॥
अधिकारी हो गुरुदेव से उपदेश जो नर पाय है।
भोला तरे संसार से नहीं गर्भ में फिर आय है॥'


जय हिंद,जय हिंदी'

अमर शहीद # उधमसिंह जी




ऊधम सिंह (अंग्रेज़ी:Udham Singh, जन्म: 26 दिसंबर, 1899, सुनाम गाँव, पंजाब - मृत्यु: 31 जुलाई, 1940, पेंटनविले जेल, ब्रिटेन) भारत की आज़ादी की लड़ाई में अहम योगदान करने वाले पंजाब के महान क्रान्तिकारी थे। अमर शहीद ऊधम सिंह ने 13 अप्रैल,1919 ई. को पंजाब में हुए भीषण जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के उत्तरदायी माइकल ओ'डायर की लंदन में गोली मारकर हत्या करके निर्दोष भारतीय लोगों की मौत का बदला लिया था।

जन्म

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। इतिहासकार डॉ. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग

स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन् 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे। इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली।हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आज़ाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओडायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।

माइकल ओ'डायर की हत्या

इस के बाद घटना ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ'डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ'डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ'डायर भी गए वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'

मृत्यु 

ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'
4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधमसिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।

Tuesday, 28 July 2015

भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारक, शिक्षा शास्त्री व स्वाधीनता सेनानी ईश्वर

 चन्द्र विद्यासागर की पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि 

जन्म तथा शिक्षा

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का जन्म 26 सितम्बर, 1820 को पश्चिमी मेदिनीपुर ज़िला, पश्चिम बंगाल में एक निर्धन धार्मिक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ठाकुरदास बन्धोपाध्याय था और माता भगवती देवी थीं। इनका बचपन बेहद गरीबी में व्यतीत हुआ था। गाँव के स्कूल से ही प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद छ: वर्ष की आयु में ही ईश्वर चन्द्र पिता के साथ कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) आ गये थे। वह कोई भी चीज़ बहुत जल्दी सीख जाते थे। उत्कृष्ट शैक्षिक प्रदर्शन के कारण उन्हें विभिन्न संस्थानों द्वारा कई छात्रवृत्तियाँ प्रदान की गई थीं। वे उच्चकोटि के विद्वान थे। उनकी विद्वता के कारण ही उन्हें 'विद्यासागर' की उपाधि दी गई थी।

व्यावसायिक जीवन की शुरुआत

अपने परिवार को आर्थिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से ही ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। वर्ष 1839 में ईश्वर चन्द्र ने सफलता पूर्वक अपनी क़ानून की पढ़ाई संपन्न की। वर्ष 1841 में मात्र इक्कीस वर्ष की आयु में उन्होंने संस्कृत के शिक्षक के तौर पर 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में पढ़ाना शुरू कर दिया। पाँच साल बाद 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' छोड़ने के पश्चात ईश्वर चन्द्र विद्यासागर 'संस्कृत कॉलेज' में बतौर सहायक सचिव नियुक्त हुए। पहले ही वर्ष उन्होंने शिक्षा पद्वति को सुधारने के लिए अपनी सिफारिशें प्रशासन को सौप दीं। लेकिन उनकी रिपोर्ट ने उनके और तत्कालीन कॉलेज सचिव रसोमय दत्ता के बीच तकरार उत्पन्न कर दी, जिसकी वजह से उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। लेकिन 1849 में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को साहित्य के प्रोफ़ेसर के रूप में 'संस्कृत कॉलेज' से एक बार फिर जुड़ना पड़ा। इसके बाद 1851 में वह इस कॉलेज के प्राधानचार्य नियुक्त किए गए, लेकिन रसोमय दत्ता के अत्यधिक हस्तक्षेप के कारण ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को 'संस्कृत कॉलेज' से त्यागपत्र देना पड़ा, जिसके बाद वह प्रधान लिपिक के तौर पर दोबारा 'फ़ोर्ट विलियम कॉलेज' में शामिल हुए।

समाज सुधार

अपने समाज सुधार योगदान के अंतर्गत ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने देशी भाषा और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूलों की एक शृंखला के साथ ही कलकत्ता में 'मेट्रोपॉलिटन कॉलेज' की स्थापना भी की। उन्होंने इन स्कूलों को चलाने में आने वाले खर्च का बीड़ा उठाया और अपनी बंगाली में लिखी गई किताबों, जिन्हें विशेष रूप से स्कूली बच्चों के लिए ही लिखा गया था, की बिक्री से फंड अर्जित किया। ये किताबें हमेशा बच्चों के लिए महत्त्वपूर्ण रहीं, जो शताब्दी या उससे भी अधिक समय तक पढ़ी जाती रहीं। जब विद्यासागर जी कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के प्रधानाचार्य बनाये गए, तब उन्होंने कॉलेज सभी जाति के छात्रों के लिए खोल दिया। ये उनके अनवरत प्रचार का ही नतीजा था कि 'विधवा पुनर्विवाह क़ानून-1856' आखिरकार पारित हो सका। उन्होंने इसे अपने जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना था। विद्यासागर जी ने अपने इकलौते पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया। उन्होंने 'बहुपत्नी प्रथा' और 'बाल विवाह' के ख़िलाफ़ भी संघर्ष छेड़ा।

प्रेरक प्रसंग

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की विनम्रता एवं संस्कारशीलता की प्रशंसा सर्वत्र होती थी। यही नहीं देशभक्ति की भावना भी उनमें आत्मा की गहराई तक विद्यमान थी। इसी वजह से वे सभी की श्रद्धा के पात्र थे। उनसे सम्बन्धित कुछ प्रेरक प्रसंग इस प्रकार हैं-
  • बात उन दिनों की है जब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर 'संस्कृत कॉलेज' के आचार्य थे। एक बार विद्यासागर जी किसी कार्य से 'प्रेसीडेंट कॉलेज' के अंग्रेज़ आचार्य कैर से मिलने गए। जब विद्यासागर जी ने कैर के कमरे में प्रवेश किया तो उनका स्वागत करना तो दूर, कैर जूते पहने मेज पर पैर फैलाए बैठा रहा। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को ये सब बड़ा अप्रिय लगा, किंतु वे चुपचाप इस अपमान को सहन कर गए और आवश्यक चर्चा कर वापस लौट आए। इस घटना के कुछ दिनों बाद किसी काम से कैर भी विद्यासागर के कॉलेज आया। उन्हें देखकर विद्यासागर जी ने चप्पलों सहित अपने पैर उठाकर मेज पर फैला लिए और आराम से कुर्सी पर बैठे रहे। उन्होंने कैर से बैठने के लिए भी नहीं कहा। कैर ने उनके इस व्यवहार की शिकायत लिखित रूप से शिक्षा परिषद के सचिव डॉ. मुआट से की। तब डॉ. मुआट कैर को लेकर विद्यासागर के पास गए और उनसे कारण पूछा। इस पर विद्यासागर जी ने कहा- "हम भारतीय अंग्रेज़ों से ही यूरोपीय शिष्टाचार सीखते हैं। जब मैं इनसे मिलने गया था तो ये इसी तरह बैठे थे। मैंने इसे यूरोपीय शिष्टाचार समझा और इसका अनुसरण किया। इन्हें नाराज करने का मेरा कोई इरादा नहीं था।" कैर ने शर्मिदा होकर विद्यासागर जी से क्षमा मांगी।
  • एक बार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को इंग्लैंड में एक सभा की अध्यक्षता करनी थी। उनके बारे में यह मशहूर था कि उनका प्रत्येक कार्य घड़ी की सुई के साथ पूर्ण होता है अर्थात वे समय के बहुत पाबंद थे। वे लोगों से भी यही अपेक्षा रखते थे कि वे अपना कार्य समय पर करें। विद्यासागर जी जब निश्चित समय पर सभा भवन पहुँचे तो उन्होंने देखा कि लोग सभा भवन के बाहर घूम रहे हैं और कोई भी अंदर नहीं बैठा है। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि सफाई कर्मचारियों के न आने के कारण अभी भवन की सफाई नहीं हुई है। यह सुनते ही विद्यासागर जी ने एक क्षण भी बिना गंवाए झाड़ू उठा ली और सफाई कार्य प्रारम्भ कर दिया। उन्हें ऐसा करते देख उपस्थित लोगों ने भी कार्य शुरू कर दिया। देखते ही देखते सभा भवन की सफाई हो गई और सारा फ़र्नीचर यथास्थान लगा दिया गया। जब सभा आरंभ हुई तो ईश्वर चन्द्र विद्यासागर बोले- "कोई व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, उसे स्वावलंबी होना चाहिए। अभी आप लोगों ने देखा कि एक-दो व्यक्तियों के न आने से हम सभी परेशान हो रहे थे। संभव है कि उन व्यक्तियों तक इस कार्य की सूचना न पहुँची हो या फिर किसी दिक्कत के कारण वे यहाँ न पहुँच सके हों। क्या ऐसी दशा में आज का कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाता? यदि ऐसा होता तो कितने व्यक्तियों का आज का श्रम और समय व्यर्थ हो जाता। सार यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए और वक्त पड़ने पर किसी भी कार्य को करने में संकोच नहीं करना चाहिए।"
  • यह प्रसंग ब्रिटिश हुकूमत से जुड़ा है। बंगाल में नील की खेती करने वाले अंग्रेज़ों, जिन्हें 'नील साहब' या 'निलहे साहब' भी कहा जाता था, के अत्याचार बहुत बढ़ गये थे। लोगों का जीवन नर्क बन गया था। इसी जुल्म के ख़िलाफ़ कहीं-कहीं आवाजें भी उठने लगी थीं। ऐसी ही एक आवाज को कलकत्ता रंगमंच के कुछ युवा कलाकार बुलंदी की ओर ले जाने की कोशीश में थे। ये कलाकार अपने नाटकों के द्वारा अंग्रेज़ों की बर्बरता का मंचन लोगों के बीच कर विरोध प्रदर्शित करते रहते थे। ऐसे ही एक मंचन के दौरान इन युवकों ने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को भी आमंत्रित किया। उनकी उपस्थिति में युवकों ने इतना सजीव अभिनय प्रस्तुत किया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गये। विशेषकर निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने तो अपने चरित्र में प्राण डाल दिये थे। अभिनय इतना सजीव था कि विद्यासागर जी भी अपने पर काबू नहीं रख सके और उन्होंने अपने पैर से चप्पल निकाल कर उस अभिनेता पर दे मारी। सारा सदन भौचक्का रह गया। उस अभिनेता ने विद्यासागर जी के पाँव पकड़ लिए और कहा कि मेरा जीवन धन्य हो गया। इस पुरस्कार ने मेरे अभिनय को सार्थक कर दिया। आपके इस प्रहार ने निलहों के साथ-साथ हमारी ग़ुलामी पर भी प्रहार किया है। विद्यासागर जी ने उठ कर युवक को गले से लगा लिया। सारे सदन की आँखें अश्रुपूरित थीं।

निधन

अपनी सहनशीलता, सादगी तथा देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध और एक शिक्षाशास्त्री के रूप में विशिष्ट योगदान करने वाले ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का निधन 29 जुलाई, 1891 को कोलकाता में हुआ। विद्यासागर जी ने आर्थिक संकटों का सामना करते हुए भी अपनी उच्च पारिवारिक परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा था। संकट के समय में भी वह कभी अपने सत्य के मार्ग से नहीं डिगे। उनके जीवन से जुड़े अनेक प्रेरक प्रसंग आज भी युवा वर्ग को प्रेरणा प्रदान करते हैं।

Thursday, 23 July 2015

दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना 



यह ‪#‎मोदीसरकार‬ की महत्वपूर्ण पहल है की ‪#‎दीनदयालपाध्याय‬ ग्राम 

ज्योति योजना तहत ‪#‎ग्रामीणविद्युतीकरण‬ के लिए ‪#‎रुपए‬ 75,600 करोड़

 रुपये निवेश करने की योजना है और यह सभी घरों के लिए 24x7 

निर्बाध विद्युत आपूर्ति की आपूर्ति करना है I 

#क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर #आज़ाद एवं #लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की #पावन जयंती पर दोनों वीरों को शत-शत नमन..

Saturday, 18 July 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( R.S.S.) एक हिंदू राष्ट्रवादी संघटन है जिसके सिद्धान्त हिंदुत्व में निहित और आधारित हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। इसकी शुरुआत सन् १९२५ में विजयदशमी के दिन डॉ॰ केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है। सबसे पहले ५० वर्ष बाद १९७५ में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो तत्कालीन जनसंघ पर भी संघ के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया। इमर्जेन्सी हटने के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ और केन्द्र में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व में मिलीजुली सरकार बनी। १९७५ के बाद से धीरे-धीरे इस संगठन का राजनैतिक महत्व बढ़ता गया और इसकी परिणति भाजपा जैसे राजनैतिक दल के रूप में हुई जिसे आमतौर पर संघ की राजनैतिक शाखा के रूप में देखा जाता है। संघ की स्थापना के ७५ वर्ष बाद सन् २००० में प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन०डी०ए० की मिलीजुली सरकार भारत की केन्द्रीय सत्ता पर आसीन हुई।

संघ परिवार की संरचनात्मक व्यवस्था
संघ में संगठनात्मक रूप से सबसे ऊपर सरसंघ चालक का स्थान होता है जो पूरे संघ का दिशा-निर्देशन करते हैं। सरसंघचालक की नियुक्ति मनोनयन द्वारा होती है। प्रत्येक सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करता है। संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत हैं। संघ के ज्यादातर कार्यों का निष्पादन शाखा के माध्यम से ही होता है, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर सुबह या शाम के समय एक घंटे के लिये स्वयंसेवकों का परस्पर मिलन होता है। वर्तमान में पूरे भारत में संघ की लगभग पचास हजार से ज्यादा शाखा लगती हैं। वस्तुत: शाखा ही तो संघ की बुनियाद है जिसके ऊपर आज यह इतना विशाल संगठन खड़ा हुआ है। शाखा की सामान्य गतिविधियों में खेल,योगवंदना और भारत एवं विश्व के सांस्कृतिक पहलुओं पर बौद्धिक चर्चा-परिचर्चा शामिल है।
संघ की रचनात्मक व्यवस्था इस प्रकार है:
  • केंद्र
  • क्षेत्र
  • प्रान्त
  • विभाग
  • जिला
  • तालुका
  • नगर
  • मण्डल
  • शाखा                                                                                                                                                    
संघ की शाखा
शाखा किसी मैदान या खुली जगह पर एक घंटे की लगती है। शाखा में खेल, सूर्य नमस्कार, समता (परेड), गीत और प्रार्थना होती है। सामान्यतः शाखा प्रतिदिन एक घंटे की ही लगती है। शाखाएँ निम्न प्रकार की होती हैं:
  • प्रभात शाखा: सुबह लगने वाली शाखा को "प्रभात शाखा" कहते है।
  • सायं शाखा: शाम को लगने वाली शाखा को "सायं शाखा" कहते है।
  • रात्रि शाखा: रात्रि को लगने वाली शाखा को "रात्रि शाखा" कहते है।
  • मिलन: सप्ताह में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "मिलन" कहते है।
  • संघ-मण्डली: महीने में एक या दो बार लगने वाली शाखा को "संघ-मण्डली" कहते है।
पूरे भारत में अनुमानित रूप से ५०,००० शाखा लगती हैं। विश्व के अन्य देशों में भी शाखाओं का कार्य चलता है, पर यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से नहीं चलता। कहीं पर "भारतीय स्वयंसेवक संघ" तो कहीं "हिन्दू स्वयंसेवक संघ" के माध्यम से चलता है।
शाखा में "कार्यवाह" का पद सबसे बड़ा होता है। उसके बाद शाखाओं का दैनिक कार्य सुचारू रूप से चलने के लिए "मुख्य शिक्षक" का पद होता है। शाखा में बौद्धिक व शारीरिक क्रियाओं के साथ स्वयंसेवकों का पूर्ण विकास किया जाता है।
जो भी सदस्य शाखा में स्वयं की इच्छा से आता है, वह "स्वयंसेवक" कहलाता है।

संघ वर्ग
ये वर्ग बौद्धिक और शारीरिक रूप से स्वयंसेवकों को संघ की जानकारी तो देते ही हैं साथ-साथ समाज, राष्ट्र और धर्म की शिक्षा भी देते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं:
  • दीपावली वर्ग - ये वर्ग तीन दिनों का होता है। ये वर्ग तालुका या नगर स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दीपावली के आस पास आयोजित होता है।
  • शीत शिविर या (हेमंत शिविर) - ये वर्ग तीन दिनों का होता है, जो जिला या विभाग स्तर पर आयोजित किया जाता है। ये हर साल दिसंबर में आयोजित होता है।
  • निवासी वर्ग - ये वर्ग शाम से सुबह तक होता है। ये वर्ग हर महीने होता है। ये वर्ग शाखा, नगर या तालुका द्वारा आयोजित होता है।
  • संघ शिक्षा वर्ग - प्राथमिक वर्ग, प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष और तृतीय वर्ष - कुल चार प्रकार के संघ शिक्षा वर्ग होते हैं। "प्राथमिक वर्ग" एक सप्ताह का होता है, "प्रथम" और "द्वितीय वर्ग" २०-२० दिन के होते हैं, जबकि "तृतीय वर्ग" 25 दिनों का होता है। "प्राथमिक वर्ग" का आयोजन सामान्यतःजिला करता है, "प्रथम संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: प्रान्त करता है, "द्वितीय संघ शिक्षा वर्ग" का आयोजन सामान्यत: क्षेत्र करता है। परन्तु "तृतीय संघ शिक्षा वर्ग" हर साल नागपुर में ही होता है।
  • बौद्धिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है।
  • शारीरिक वर्ग - ये वर्ग हर महीने, दो महीने या तीन महीने में एक बार होता है। ये वर्ग सामान्यत: नगर या तालुका आयोजित करता है।
सामाजिक सुधार में योगदान
हिन्दू धर्म में सामाजिक समानता के लिये संघ ने दलितों व पिछड़े वर्गों को मन्दिर में पुजारी पद के प्रशिक्षण का पक्ष लिया है। उनके अनुसार सामाजिक वर्गीकरण ही हिन्दू मूल्यों के हनन का कारण है।
महात्मा गान्धी ने १९३४ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर की यात्रा के दौरान वहाँ पूर्ण अनुशासन देखा और छुआछूत की अनुपस्थिति पायी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और जाना कि वहाँ लोग एक साथ रह रहे हैं तथा एक साथ भोजन कर रहे हैं।
राहत और पुनर्वास
राहत और पुर्नवास संघ कि पुरानी परंपरा रही है। संघ ने १९७१ के उड़ीसा चक्रवात और १९७७ के आंध्र प्रदेश चक्रवात में रहत कार्यों में महती भूमिका निभाई है।


संघ से जुडी सेवा भारती ने जम्मू कश्मीर से आतंकवाद से परेशान ५७ अनाथ बच्चों को गोद लिया हे जिनमे ३८ मुस्लिम और १९ हिंदू है।

उपलब्धियाँ
संघ की उपस्थिति भारतीय समाज के हर क्षेत्र में महसूस की जा सकती है जिसकी शुरुआत सन १९२५ से होती है। उदाहरण के तौर पर सन १९६२ के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन १९६३ के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। सिर्फ़ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये।
वर्तमान समय में संघ के दर्शन का पालन करने वाले कतिपय लोग देश के सर्वोच्च पदों तक पहुँचने मे भीं सफल रहे हैं। ऐसे प्रमुख व्यक्तियों मेंप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री पद पर अटल बिहारी वाजपेयी, उपराष्ट्रपति पद पर भैरोंसिंह शेखावत, एवं उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री के पद परलालकृष्ण आडवाणी जैसे लोग शामिल हैं।
संघ के सरसंघचालक

संघ की प्रार्थना


संघ की प्रार्थना संस्कृत में है। प्रार्थना की आखरी पंक्ति हिंदी में है।
लड़कियों/स्त्रियों की शाखा राष्ट्र सेविका समिति और विदेशों में लगने वाली हिन्दू स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना अलग है। संघ की शाखा या अन्य कार्यक्रमों में इस प्रार्थना को अनिवार्यत: गाया जाता है और ध्वज के सम्मुख नमन किया जाता है।
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥ १॥

प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्॥ २॥
समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम्।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥ ३॥

॥ भारत माता की जय ॥

प्रार्थना का हिन्दी में अर्थ

हे वात्सल्यमयी मातृभूमि, तुम्हें सदा प्रणाम! इस मातृभूमि ने हमें अपने बच्चों की तरह स्नेह और ममता दी है। इस हिन्दू भूमि पर सुखपूर्वक मैं बड़ा हुआ हूँ। यह भूमि महा मंगलमय और पुण्यभूमि है। इस भूमि की रक्षा के लिए मैं यह नश्वर शरीर मातृभूमि को अर्पण करते हुए इस भूमि को बार-बार प्रणाम करता हूँ।
हे सर्व शक्तिमान परमेश्वर, इस हिन्दू राष्ट्र के घटक के रूप में मैं तुमको सादर प्रणाम करता हूँ। आपके ही कार्य के लिए हम कटिबद्ध हुवे है। हमें इस कार्य को पूरा करने किये आशीर्वाद दे। हमें ऐसी अजेय शक्ति दीजिये कि सारे विश्व मे हमे कोई न जीत सकें और ऐसी नम्रता दें कि पूरा विश्व हमारी विनयशीलता के सामने नतमस्तक हो। यह रास्ता काटों से भरा है, इस कार्य को हमने स्वयँ स्वीकार किया है और इसे सुगम कर काँटों रहित करेंगे।
ऐसा उच्च आध्यात्मिक सुख और ऐसी महान ऐहिक समृद्धि को प्राप्त करने का एकमात्र श्रेष्ट साधन उग्र वीरव्रत की भावना हमारे अन्दर सदेव जलती रहे। तीव्र और अखंड ध्येय निष्ठा की भावना हमारे अंतःकरण में जलती रहे। आपकी असीम कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने में समर्थ हो।
॥ भारत माता की जय॥

हिन्दी काव्यानुवाद

हे परम वत्सला मातृभूमि! तुझको प्रणाम शत कोटि बार।
हे महा मंगला पुण्यभूमि ! तुझ पर न्योछावर तन हजार॥

हे हिन्दुभूमि भारत! तूने, सब सुख दे मुझको बड़ा किया;
तेरा ऋण इतना है कि चुका, सकता न जन्म ले एक बार।
हे सर्व शक्तिमय परमेश्वर! हम हिंदुराष्ट्र के सभी घटक,
तुझको सादर श्रद्धा समेत, कर रहे कोटिशः नमस्कार॥

तेरा ही है यह कार्य हम सभी, जिस निमित्त कटिबद्ध हुए;
वह पूर्ण हो सके ऐसा दे, हम सबको शुभ आशीर्वाद।
सम्पूर्ण विश्व के लिये जिसे, जीतना न सम्भव हो पाये;
ऐसी अजेय दे शक्ति कि जिससे, हम समर्थ हों सब प्रकार॥

दे ऐसा उत्तम शील कि जिसके, सम्मुख हो यह जग विनम्र;
दे ज्ञान जो कि कर सके सुगम, स्वीकृत कन्टक पथ दुर्निवार।
कल्याण और अभ्युदय का, एक ही उग्र साधन है जो;
वह मेरे इस अन्तर में हो, स्फुरित वीरव्रत एक बार॥

जो कभी न होवे क्षीण निरन्तर और तीव्रतर हो ऐसी;
सम्पूर्ण ह्र्दय में जगे ध्येय, निष्ठा स्वराष्ट्र से बढे प्यार।
निज राष्ट्र-धर्म रक्षार्थ निरन्तर, बढ़े संगठित कार्य-शक्ति;
यह राष्ट्र परम वैभव पाये, ऐसा उपजे मन में विचार॥
सहयोगी सँस्थाएँ

संघ साहित्य के प्रकाशक
निम्नलिखित प्रकाशन संघ की योजना द्वारा संचालित नहीं है, निजी हैं। इन प्रकाशनों ने भी उच्च कोटि का संघ साहित्य बड़ी संख्या में प्रकाशित किया है।
१. सुरुचि प्रकाशन
देशबन्धु गुप्ता मार्ग
झण्डेवाला, नई दिल्ली-५५
२. लोकहित प्रकाशन संस्कृति भवन ; राजेन्द्र नगर, लखनऊ-४
३. राष्ट्रोत्थान साहित्य केशव शिल्प ; केम्पगौड़ा नगर, बंगलौर-१९
४. भारतीय विचार साधना
(क) डॉ॰ हेडगेवार भवन महाल, नागपुर-४४०००२
(ख) मोती बाग ; ३०९, शनिवार पेठ, पुणे-४११०३०
(ग) मंगलदास बाड़ी, डॉ॰ भडकम्कर मार्ग नाज सिनेमा परिसर, मुम्बई-४०००४
५. ज्ञान गंगा प्रकाशन
भारती भवन, बी-१५, न्यू कालोनी, जयपुर-३०२००१
६. अर्चना प्रकाशन
एच.आई.जी.-१८, शिवाजी नगर, भोपाल-४६२०१६
७. साधना पुस्तक प्रकाशन
राम निवास ; बलिया काका मार्ग,
जूनाढोर बाजार के सामने, कांकरिया, अमदाबाद -३८००२८
८. सातवलेकर स्वाध्याय
पो - किलापारडी
मण्डल जिला-वलसाड, गुजरात-३९६१२५
९. साहित्य निकेतन
३-४/८५२, बरकतपुरा, हैदराबाद-५०००२७
१०. स्वस्तिश्री प्रकाशन
४४/९, नवसहयाद्री सोसाइटी
नवसहयाद्री पोस्टास मोर पुणे-४११०५२
११. जागृति प्रकाशन
एफ. १०९, सेक्टर-२७
नोएडा (गौतम बुद्ध नगर) उ.प्र.२०१३०१
१२. सूर्य भारती प्रकाशन
२५९६, नई सड़क, दिल्ली-११०००६