महान आदिवासी वीर जननायक और धरती बाबा
बिरसा मुंडा जी को उनके पुण्यतिथि पर
शत शत नमन
बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।
अनुक्रम
आरंभिक जीवन
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८७५ को झारखंड प्रदेश में राँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। १८९४ में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।मुंडा विद्रोह का नेतृत्व
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।विद्रोह में भागीदारी और अन्त
1897 से 1900
के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और
उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898
में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें
पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत
से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
जनवरी 1900
डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे
मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में
बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3
फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।
बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
बिरसा मुण्डा की समाधि
राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका
स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय
कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है।
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