Sunday 30 October 2016

I Extend My Warm Wishes On the Eve of  

Vishwakarma Jayanti



विश्वकर्मा जयन्ती

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विश्वकर्मा जयन्ती भारत के कर्नाटक, असम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और त्रिपुरा आदि प्रदेशों में १७ सितम्बर को मनायी जाती है। यह उत्सव प्रायः कारखानों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में (प्रायः शॉप फ्लोर पर) मनाया जाता है। विश्वकर्मा को विश्व का निर्माता तथा देवताओं का वास्तुकार माना गया है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ


समस्त भारतवासियों को गोवर्धन पूजाअन्नकूट 
की शुभकामनायें । 
भगवान कृष्ण आपके जीवन मे शुख,शांति व समृद्धि 
                                बनाये रखे । 


गोवर्धन पूजा

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गोवर्धन पूजा
आधिकारिक नाम गोवर्धन पूजा व्रत
अनुयायी हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी
तिथि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा
गोवर्धन पूजा हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है।

अनुक्रम

कथा

दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।

कथा

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है। कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं ने एक लीला रची। प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे। श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया " मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं" कृष्ण की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं। मैया के ऐसा कहने पर श्री कृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं? मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है। भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।
लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की। देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है। तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया। इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी। इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।
इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया। ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं। ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया।
इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।

बाहरी कड़ियाँ


 

भारतीय एकता के प्रतीक लोह आधुनिक भारत के निर्माता "लौह पुरुष" सरदार पटेल को उनकी जयंती पर शत शत नमन !  

 

 

सरदार वल्लभ भाई पटेल (गुजराती: સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ ; 31 अक्टूबर, 1875 - 15 दिसम्बर, 1950) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। भारत की आजादी के बाद वे प्रथम गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री बने। बारदोली सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे पटेल को सत्याग्रह की सफलता पर वहाँ की महिलाओं ने सरदार की उपाधि प्रदान की। आजादी के बाद विभिन्न रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए पटेल को भारत का बिस्मार्क और लौह पुरूष भी कहा जाता है।

अनुक्रम

जीवन परिचय

पटेल का जन्म नडियाद, गुजरात में एक लेवा पाटीदार कृषक परिवार में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लन्दन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया।

खेडा संघर्ष

स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खण्ड (डिविजन) उन दिनो भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल, गांधीजी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।

बारडोली सत्याग्रह

बारडोली के किसानों के साथ (1928)
बारडोली कस्बे में सशक्त सत्याग्रह करने के लिये ही उन्हे पहले बारडोली का सरदार और बाद में केवल सरदार कहा जाने लगा।

आजादी के बाद

यद्यपि अधिकांश प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ पटेल के पक्ष में थीं, गांधी जी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल जी ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और इसके लिये नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधान मंत्री एवं गृह मंत्री का कार्य सौंपा गया। किन्तु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के सम्बन्ध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी।
गृह मंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों (राज्यों) को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाये सम्पादित कर दिखाया। केवल हैदराबाद के आपरेशन पोलो के लिये उनको सेना भेजनी पडी। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिये उन्हे भारत का लौह पुरूष के रूप में जाना जाता है। सन १९५० में उनका देहान्त हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अन्दर बहुत कम विरोध शेष रहा।

देसी राज्यों (रियासतों) का एकीकरण

सरदार पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पीवी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और जूनागढ भी भारत में मिल गया। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। किन्तु नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तराष्ट्रीय समस्या है।।[1]

गांधी, नेहरू और पटेल

गांधीजी, पटेल और मौलाना आजाद (1940)
स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू व प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल में आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी परंतु सरदार पटेल वकालत में पं॰ नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे, "मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।" पं॰ नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी। पं॰ नेहरू अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे तथा समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।
देश की स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री के साथ प्रथम गृह, सूचना तथा रियासत विभाग के मंत्री भी थे। सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गई थी। एक बार उन्होंने सुना कि बस्तर की रियासत में कच्चे सोने का बड़ा भारी क्षेत्र है और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निजाम सरकार खरीदना चाहती है। उसी दिन वे परेशान हो उठे। उन्होंने अपना एक थैला उठाया, वी.पी. मेनन को साथ लिया और चल पड़े। वे उड़ीसा पहुंचे, वहां के 23 राजाओं से कहा, "कुएं के मेढक मत बनो, महासागर में आ जाओ।" उड़ीसा के लोगों की सदियों पुरानी इच्छा कुछ ही घंटों में पूरी हो गई। फिर नागपुर पहुंचे, यहां के 38 राजाओं से मिले। इन्हें सैल्यूट स्टेट कहा जाता था, यानी जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। इसी तरह वे काठियावाड़ पहुंचे। वहां 250 रियासतें थी। कुछ तो केवल 20-20 गांव की रियासतें थीं। सबका एकीकरण किया। एक शाम मुम्बई पहुंचे। आसपास के राजाओं से बातचीत की और उनकी राजसत्ता अपने थैले में डालकर चल दिए। पटेल पंजाब गये। पटियाला का खजाना देखा तो खाली था। फरीदकोट के राजा ने कुछ आनाकानी की। सरदार पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर अपनी लाल पैंसिल घुमाते हुए केवल इतना पूछा कि "क्या मर्जी है?" राजा कांप उठा। आखिर 15 अगस्त 1947 तक केवल तीन रियासतें-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद छोड़कर उस लौह पुरुष ने सभी रियासतों को भारत में मिला दिया। इन तीन रियासतों में भी जूनागढ़ को 9 नवम्बर 1947 को मिला लिया गया तथा जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 13 नवम्बर को सरदार पटेल ने सोमनाथ के भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया, जो पंडित नेहरू के तीव्र विरोध के पश्चात भी बना। 1948 में हैदराबाद भी केवल 4 दिन की पुलिस कार्रवाई द्वारा मिला लिया गया। न कोई बम चला, न कोई क्रांति हुई, जैसा कि डराया जा रहा था।
जहां तक कश्मीर रियासत का प्रश्न है इसे पंडित नेहरू ने स्वयं अपने अधिकार में लिया हुआ था, परंतु यह सत्य है कि सरदार पटेल कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर बेहद क्षुब्ध थे। नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था। भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, "रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।"
यद्यपि विदेश विभाग पं॰ नेहरू का कार्यक्षेत्र था, परंतु कई बार उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में उनका जाना होता था। उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता। 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा। 1950 में नेपाल के संदर्भ में लिखे पत्रों से भी पं॰ नेहरू सहमत न थे। 1950 में ही गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा "क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।" नेहरू इससे बड़े नाराज हुए थे। यदि पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती।
गृहमंत्री के रूप में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) बनाया। अंग्रेजों की सेवा करने वालों में विश्वास भरकर उन्हें राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा। यदि सरदार पटेल कुछ वर्ष जीवित रहते तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता।
सरदार पटेल जहां पाकिस्तान की छद्म व चालाकी पूर्ण चालों से सतर्क थे वहीं देश के विघटनकारी तत्वों से भी सावधान करते थे। विशेषकर वे भारत में मुस्लिम लीग तथा कम्युनिस्टों की विभेदकारी तथा रूस के प्रति उनकी भक्ति से सजग थे। अनेक विद्वानों का कथन है कि सरदार पटेल बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन के टाइम्स ने लिखा था "बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं। यदि पटेल के कहने पर चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल के हालात आज जैसे न होते। पटेल सही मायनों में मनु के शासन की कल्पना थे। उनमें कौटिल्य की कूटनीतिज्ञता तथा महाराज शिवाजी की दूरदर्शिता थी। वे केवल सरदार ही नहीं बल्कि भारतीयों के ह्मदय के सरदार थे।

पटेल का सम्मान

सरदार पटेल राष्ट्रीय स्मारक का मुख्य कक्ष
  • अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण सरदार वल्लभभाई पटेल अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है।
  • गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में सरदार पटेल विश्वविद्यालय

प्रशस्ति काव्य

राष्ट्र सपूत

करमसदनो कर्मवीर ने, बारडोलीनो तारणहार;
गांघीसैन्यनो अदनो सैनिक, भारतनो स्वीकृत सरदार.

मांधाताना मद छोडावे, एवो तारो रण टंकार;
वाणीनो विलास गमे ना, शब्द कर्ममां एकाकार.

शब्द-शस्त्र ने नीति-अस्त्रनो, परम उपासक नव चाणक्य;
शासकने तें साधक कीधा, राष्ट्र-यज्ञना सह याचक.

संघ-शक्तिनो अजोड साघक कार्य सिद्धिनो आह्वाहक;
एक तिरंगानी छायामां, एखंड भारतनो सर्जक.

बापुने पगले तुं चाल्यो, बनी भक्त, शूर, दृढ प्रतिज्ञ;
अद्भुत ऐक्य दई भारतने, पूर्ण कर्यो जीवननो यज्ञ.

स्वराज्यनी चालीसी टाणे, सुराज्य झंखे सौ नर-नार;
स्मरे स्नेहथी, सादर वन्दे, जय जय राष्ट्र सपूत सरदार.
                                 - हरगोविंद चन्दुलाल नायक (अमदावाद, 1986)

खेडूतोनो तारणहार

कोनी हाके मडदां ऊठ्यां ?
कायर केसरी थई तडूक्या ?
कोनी पाडे कपटी जूठा,
जालीमोनां गात्र वछुट्यां ?
खेडूतोनो तारणहार,
जय सरदार ! जय सरदार
खेडूतोनी मुक्ति काजे,
सिंह समो गुजराते गाजे,
ताज विनानो राजा राजे,
कोण हवे जने वल्लभ आजे !
खेडूतोनो तारणहार,
जय सरदार ! जय सरदार
माटीमांथी मर्द बनावी,
सभळी सत्ताने थंभावी,
गुर्जरी माने जेब अपावी,
भारतभर उषा प्रगटावी.
खेडूतोनो तारणहार,
जय सरदार ! जय सरदार
लीला नंदनवन भेलाडे,
रांकडी रैयतने रंजाडे,
एवा नंदी नाथ्या कोणे ?
पळमां दीधा पूरी खूणे.
खेडूतोनो तारणहार,
जय सरदार ! जय सरदार
                     - कल्याणजी महेता (बारडोली, 1928)

पटेल के प्रति

यही प्रसिद्ध लोहपुरुष प्रबल,
यही प्रसिद्ध शक्ति की शिला अटल,
हिला इसे सका कभी न शत्रु दल,
पटेल पर
स्वदेश को
गुमान है ।
सुबुद्धि उच्च श्रृंग पर किये जगह,
हृदय गंभीर है समुद्र की तरह,
कदम छुए हुए ज़मीन की सतह,
पटेल देश का
निगहबान है ।
हरेक पक्ष के पटेल तौलता,
हरेक भेद को पटेल खोलता,
दुराव या छिपाव से इसे गरज ?
कठोर नग्न सत्य बोलता ।
पटेल हिंद की नीडर जबान है ।
                 - हरिवंशराय बच्चन (1950)

His Works are actions

Cross legend he sits with a stony stoop
And dark deep furrowed face
Eyes at once undaunted searching kind
A head too cool a nook for fire anged words

Have you ever heard him speak?
It is not words he utters.
He musters the strength of the shriveled soul
Of a vast famishing people;
And ever his steep stark personality
Forges word winged weapons.

It is his wont to fling
Barbed words at feasting ill
But of the from his soul sling
Darts forth not words but will
His words are actions.
                    - Umashankar Joshi (Ahmedabad, 1948)

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

31 अक्टूबर 2013 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137वीं जयंती के मौके पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार वल्लभ भाई पटेल के स्मारक का शिलान्यास किया। इसका नाम 'एकता की मूर्ति' (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है। यह मूर्ति 'स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी' (93 मीटर) से दुगनी ऊंची बनेगी। इस प्रस्तावित प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप पर स्थापित किया जाना है जो केवाड़िया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के मध्य में है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह प्रतिमा दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति होगी तथा यह 5 वर्ष में लगभग 2500 करोड़ रुपये की लागत से तैयार होनी है।[2]

सन्दर्भ


  • भारत को एकजुट करने वाले सरदार पटेल (प्रभासाक्षी)

  • इन्हें भी देखें

    बाहरी कड़ियाँ


    Sources From Wikipedia

    Tuesday 11 October 2016


    समाज और संगठन के लिये संपूर्ण जीवन समर्पित करने वाले राष्ट्र ऋषि नाना जी देशमुख जी को उनकी जन्म जयंती पर उन्हें शत् - शत् नमन!
     

    नानाजी देशमुख
    नानाजी देशमुख
    जन्म चंडिकादास अमृतराव देशमुख
    ११ अक्टूबर १९१६
    कस्बा कदोली, जिला हिंगोली, महाराष्ट्र.
    मृत्यु २७ फ़रवरी २०१० (आयु: ९५ वर्ष)
    चित्रकूट, उत्तर प्रदेश
    राष्ट्रीयता भारतीय
    व्यवसाय समाजसेवक
    प्रसिद्धि कारण दीनदयाल शोध संस्थान
    नानाजी देशमुख (जन्म : ११ अक्टूबर १९१६, चंडिकादास अमृतराव देशमुख - मृत्यु : २७ फ़रवरी २०१०) एक भारतीय समाजसेवी थे। वे पूर्व में भारतीय जनसंघ के नेता थे। १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें मोरारजी-मन्त्रिमण्डल में शामिल किया गया परन्तु उन्होंने यह कहकर कि ६० वर्ष से अधिक आयु के लोग सरकार से बाहर रहकर समाज सेवा का कार्य करें, मन्त्री-पद ठुकरा दिया। वे जीवन पर्यन्त दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार हेतु कार्य करते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वालम्बन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिये पद्म विभूषण भी प्रदान किया।

    अनुक्रम

    आरम्भिक जीवन

    नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोली नामक छोटे से कस्बे में ब्राह्मण परिवार में ११ अक्टूबर १९१६ को हुआ था। नानाजी का लंबा और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता. उन्होंने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया। बचपन अभावों में बीता। उनके पास शुल्क देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अत: इस कार्य के लिये उन्होने सब्जी बेचकर पैसे जुटाये। वे मन्दिरों में रहे और पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन्नीस सौ तीस के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।

    आर.एस.एस. कार्यकर्ता के रूप में

    नानाजी देशमुख लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित हुए। तिलक से प्रेरित होकर उन्होंने समाज सेवा और सामाजिक गतिविधियों में रुचि ली. आर.एस.एस. के आदि सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे। हेडगेवार ने नानाजी की प्रतिभा को पहचान लिया और आर.एस.एस. की शाखा में आने के लिये प्रेरित किया।
    १९४० में, डॉ॰ हेडगेवार जी के निधन के बाद नानाजी ने कई युवकों को महाराष्ट्र की आर.एस.एस. शाखाओं में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। नानाजी उन लोगों में थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने के लिये आर.एस.एस. को दे दिया। वे प्रचारक के रूप में उत्तरप्रदेश भेजे गये। आगरा में वे पहली बार दीनदयाल उपाध्याय से मिले। बाद में वे गोरखपुर गये और लोगों को संघ की विचारधारा के बारे में बताया। यह कार्य आसान नहीं था। संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे। नानाजी को धर्मशालाओं में ठहरना पड़ता था और लगातार धर्मशाला बदलना भी पड़ता था, क्योंकि एक धर्मशाला में लगातार तीन दिनों से ज्यादा समय तक ठहरने नहीं दिया जाता था। अन्त में बाबा राघवदास ने उन्हें इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिये खाना बनाया करेंगे। तीन साल के अन्दर उनकी मेहनत रंग लायी और गोरखपुर के आसपास संघ की ढाई सौ शाखायें खुल गयीं। नानाजी ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर में की।
    १९४७ में, आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश (हिन्दी समाचारपत्र) निकालने का फैसला किया। अटल बिहारी वाजपेयी को सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी गयी। पैसे के अभाव में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन के लिये बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आयी और सुदृढ राष्ट्रवादी सामाग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और पहचान मिली। १९४८ में गान्धीजी की हत्या के बाद आर.एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रहा।

    राजनीतिक जीवन

    जब आर.एस.एस. से प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। श्री गुरूजी ने नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। १९५७ तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी।
    उत्तरप्रदेश की बड़ी राजनीतिक हस्ती चन्द्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। १९५७ में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। १९५७ में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार हार को मुँह देखना पड़ा।
    उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भी, जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। एक बार नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया। दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन का पर्दाफाश किया।
    १९६७ में भारतीय जनसंघ संयुक्त विधायक दल का हिस्सा बन गया और चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हुआ। नानाजी के चौधरी चरण सिंह और डॉ राम मनोहर लोहिया दोनों से ही अच्छे सम्बन्ध थे, इसलिए गठबन्धन निभाने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। उत्तरप्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट करने में नानाजी जी का योगदान अद्भुत रहा।
    नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति को पूरा समर्थन दिया। जनता पार्टी से संस्थापकों में नानाजी प्रमुख थे। कांग्रेस को सत्ताच्युत कर जनता पार्टी सत्ता में आयी। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गये। उन्हें पुरस्कार के तौर पर मोरारजी मंत्रिमंडल में बतौर उद्योग मन्त्री शामिल होने का न्यौता भी दिया गया, लेकिन नानाजी ने साफ़ इनकार कर दिया। उनका सुझाव था कि साठ साल से अधिक आयु वाले सांसद राजनीति से दूर रहकर संगठन और समाज कार्य करें।

    सामाजिक जीवन

    १९८० में साठ साल की उम्र में उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर आदर्श की स्थापना की। बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक और रचनात्मक कार्यों में लगा दिया। वे आश्रमों में रहे और कभी अपना प्रचार नहीं किया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाज-सेवा की। उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है और वे इसके पहले कुलाधिपति थे। १९९९ में एन० डी० ए० सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाया।
    पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या नानाजी के लिये बहुत बड़ी क्षति थी। उन्होंने नई दिल्ली में अकेले दम पर दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और स्वयं को देश में रचनात्मक कार्य के लिये समर्पित कर दिया। उन्होंने गरीबी निरोधक व न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाया, जिसके अन्तर्गत कृषि, कुटीर उद्योग, ग्रामीण स्वास्थ्य और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल दिया। राजनीति से हटने के बाद उन्होंने संस्थान के अध्यक्ष का पद संभाला और संस्थान की बेहतरी में अपना सारा समय अर्पित कर दिया। उन्होंने संस्थान की ओर से रीडर्स डाइजेस्ट की तरह मंथन नाम की एक पत्रिका निकाली जिसका कई वर्षों तक के० आर० मलकानी ने सम्पादन किया।
    नानाजी ने उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े जिलों गोंडा और बीड में बहुत से सामाजिक कार्य किये। उनके द्वारा चलायी गयी परियोजना का उद्देश्य था-"हर हाथ को काम और हर खेत को पानी।"
    १९८९ में वे पहली बार चित्रकूट आये और अन्तिम रूप यहीं बस गये। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे मंदाकिनी के तट पर बैठ गये और अपने जीवन काल में चित्रकूट को बदलने का फैसला किया। चूँकि अपने वनवास-काल में राम ने दलित जनों के उत्थान का कार्य यहीं रहकर किया था, अत: इससे प्रेरणा लेकर नानाजी ने चित्रकूट को ही अपने सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया। उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की। वे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक प्रिय लगते हैं अतएव वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे। ये वही स्थान है जहाँ राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष गरीबों की सेवा में बिताये थे। उन्होंने अपने अन्तिम क्षण तक इस प्रण का पालन किया। उनका निधन भी चित्रकूट में ही रहते हुए २७ फ़रवरी २०१० को हुआ।

    दीनदयाल शोध संस्थान

    पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संकल्पना एकात्म मानववाद को मूर्त रूप देने के लिये नानाजी ने १९७२ में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। उपाध्याय जी यह दर्शन समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है।
    नानाजी देशमुख ने एकात्म मानववाद के आधार पर ग्रामीण भारत के विकास की रूपरेखा बनायी। शुरुआती प्रयोगों के बाद उत्तरप्रदेश के गोंडा और महाराष्ट्र के बीड जिलों में नानाजी ने गाँवों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, कृषि, आय, अर्जन, संसाधनों के संरक्षण व सामाजिक विवेक के विकास के लिये एकात्म कार्यक्रम की शुरुआत की। पूर्ण परिवर्तन कार्यक्रम का आधार लोक सहयोग और सहकार है।
    चित्रकूट परियोजना या आत्मनिर्भरता के लिये अभियान की शुरुआत २६ जनवरी २००५ को चित्रकूट में हुई जो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। इस परियोजना का उद्देश्य २००५ के अन्त तक इन गाँवों में आत्मनिर्भरता हासिल करना था किन्तु यह परियोजना २०१० में पूरी हो सकी। परियोजना से यह उम्मीद तो जगी है कि चित्रकूट के आसपास कम से कम पाँच सौ गाँवों को तो आत्मनिर्भर बना ही लिया जायेगा। निस्सन्देह यह परियोजना भारत और दुनिया के लिये एक आदर्श बन सकती है।

    प्रशंसा और सम्मान

    वर्ष १९९९ में नानाजी देशमुख को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नानाजी देशमुख और उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंसा की। इस संस्थान की मदद से सैकड़ों गाँवों को मुकदमा मुक्त विवाद सुलझाने का आदर्श बनाया गया। अब्दुल कलाम ने कहा-"चित्रकूट में मैंने नानाजी देशमुख और उनके साथियों से मुलाकात की। दीन दयाल शोध संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है। यह प्रारूप भारत के लिये सर्वथा उपयुक्त है। विकास कार्यों से अलग दीनदयाल उपाध्याय संस्थान विवाद-मुक्त समाज की स्थापना में भी मदद करता है। मैं समझता हूँ कि चित्रकूट के आसपास अस्सी गाँव मुकदमें बाजी से मुक्त है। इसके अलावा इन गाँवों के लोगों ने सर्वसम्मति से यह फैसला किया है कि किसी भी विवाद का हल करने के लिये वे अदालत नहीं जायेंगे। यह भी तय हुआ है कि सभी विवाद आपसी सहमति से सुलझा लिये जायेंगे। जैसा नानाजी देशमुख ने हमें बताया कि अगर लोग आपस में ही लड़ते झगड़ते रहेंगे तो विकास के लिये समय कहाँ बचेगा?" कलाम के मुताबिक, विकास के इस अनुपम प्रारूप को सामाजिक संगठनों, न्यायिक संगठनों और सरकार के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैलाया जा सकता है। शोषितों और दलितों के उत्थान के लिये समर्पित नानाजी की प्रशंसा करते हुए कलाम ने कहा कि नानाजी चित्रकूट में जो कर रहे हैं उसे देखकर अन्य लोगों की भी आँखें खुलनी चाहिये।

    निधन

    नानाजी देशमुख ने ९५ साल की उम्र में चित्रकूट स्थित भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय (जिसकी स्थापना उन्होंने खुद की थी) में रहते हुए अन्तिम साँस ली। वे पिछले कुछ समय से बीमार थे, लेकिन इलाज के लिये दिल्ली जाने से मना कर दिया। नानाजी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर छात्रों के मेडिकल शोध हेतु दान करने का वसीयतनामा (इच्छा पत्र) मरने से काफी समय पूर्व १९९७ में ही लिखकर दे दिया था, जिसका सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया।

    Saturday 1 October 2016


    On the auspicious occasion of Navratri I would like to wish all my friends a Happy Navratri and may this festival bring joy, health and wealth to you.
    नवरात्रि के शुभ अवसर पर समस्त दोस्तों को शुभकामनाएं



    Friday 19 August 2016







                 My Heartiest Congratulations to 
          PV Sindhu for his Historic 
    Silver Medal 
    Winning for India


    Wednesday 17 August 2016

    Heartiest‬ Congratulations‬ to His ‪‎Excellency‬ 
      VP Singh Badnore Ji for been Appointed‬ 
                 as the Governor‬ of Punjab‬.

    Saturday 13 August 2016

    Pakistan's Membership should be Eliminated from UNO because Army of the Pakistan is behind spreading terrorism in whole world.

    Friday 29 January 2016



    पूज्य बापू जी के शहीद दिवस पर मैं देश के हर शहीद को श्रद्धांजलि 

    अर्पित करता हूँ जिन्हों ने अपने जीवन को देश के लिए अर्पित किया हमें 

    उनकी बहादुरी और साहस हमेशा हमें प्रेरित करती रहेगी


    Sources From Wikipedia
    मोहनदास करमचन्द गांधी (2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया[1]। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।[2] प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
    सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु रोजगार करना शुरू किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
    गान्धी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादाशाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रक्खे।

    प्रारम्भिक जीवन

    सन् 1876 में खींचा गया गान्धी के बचपन का चित्र जब उनकी आयु 7 वर्ष की रही होगी
    मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी[3] जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है।[4] उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।

    कम आयु में विवाह

    मई 1883 में साढे 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। 1885 में जब गान्धी जी 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गन्धी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी 1888 में, मणिलाल गान्धी 1892 में, रामदास गान्धी 1897 में और देवदास गांधी 1900 में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।

    विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत

    गान्धी व उनकी पत्नी कस्तूरबा (1902 काफोटो)
    अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गान्धी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानीलंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंनेशाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।
    उन्हों लोगों ने गान्धी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दूईसाईबौद्धइस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांन्धी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।

    दक्षिण अफ्रीका (१८९३-१९१४) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन

    गांधी दक्षिण अफ्रीका में (१८९५)
    दक्षिण अफ्रीका में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।

    १९०६ के ज़ुलु युद्ध में भूमिका

    १९०६ में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था। इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी।२१ जुलाई (July 21), १९०६ को गांधी जी ने इंडियन ओपिनिय(Indian Opinion) में लिखा कि २३ भारतीय[5] निवासियों के विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों सेइंडियन ओपिनियन में अपने कॉलमों के माध्‍यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे इसका उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर देंगे।[6]
    गांधी की राय में, १९०६ का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर "काफिर (Kaffir)s " .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का आग्रह किया। उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां और काफिर जो हमसे कम आधुनिक हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर भी लागू होता है किंतु वे पास[7] नहीं दिखाते हैं।

    भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (१९१६ -१९४५)

    १९१५ में, गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आएं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्य‍क्त किए, लेकिन वे भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale), जो एक सम्मानित नेता थे पर ही आधारित थे। .

    चंपारण और खेड़ा

    १९१८ में खेड़ा और चंपारन सत्याग्रह के समय १९१८ में गांधी
    गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन (Champaran) और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाएनील (indigo) नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा (Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram) बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्‍वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।
    लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।

    असहयोग आन्दोलन

    गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी नेब्रिटिश राज तथा भारतीयों द्वारा ‍प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।[8] किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्‍दी ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्‍यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।
    साबरमती आश्रम : गुजरात में गांधी का घर
    दिसम्बर १९२१ में गांधी जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के नाम वाले एक नए उद्देश्‍य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति— में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन[9] को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
    असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचा वैसे फरवरी १९२२ में इसका अंत चोरी - चोरा (Chauri Chaura), उत्तरप्रदेश में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्‍यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग[10] के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया १० मार्च१९२२, को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। १८ मार्च१९२२ से लेकर उन्होंने केवल २ साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी १९२४ में आंतों (appendicitis) के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।
    गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास(Chitta Ranjan Das) तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने १९२४ की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।[11]

    स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)

    दांडी में गाँधी, ५ अप्रैल, १९३०, के अंत मेंनमक मार्च
    गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और १९२० की अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले १९२८ में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर १९२८ में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल[12] की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं ३१ दिसम्बर१९२९, भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।२६ जनवरी१९३० का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च १९३० में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे १२ मार्च से ६ अप्रेल तक नमक आंदोलन के याद में ४०० किलोमीटर (२४८ मील) तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था जिसमें अंग्रेजों ने ८०,००० से अधिक लोगों को जेल भेजा।
    १० डाउनिंग स्ट्रीट, १९३१
    लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की संधि मार्च १९३१ में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्‍यकों पर केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारीलार्ड विलिंगटन, ने राष्‍ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।

    हरिजन आंदोलन और निश्चय दिवस

    १९३२ में, दलित नेता बी के चुनाव प्रचार के माध्यम सेआर अम्बेडकर, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में गांधी जी ने सितंबर १९३२ में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित क्रिकेटर से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्‍यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। ८ मई १९३३ को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन[13] में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का २१ दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे।बीआर अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की निंदा की कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह अम्बेडकर जैसे दलित कार्यकर्ता के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दुस्तान की सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है गुरुवायुर मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति इस मंदिर में भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।
    केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् 1933 ई0 में सविनय अवज्ञा प्रारंभ की गयी। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि नये वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे महात्मा गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता है। इस कारण गुरूवायूर मंदिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक बुलाकर मंदिर के उपासको की राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे 77 प्रतिशत उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार 1 जनवरी 1934 से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में हरिजनों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिर जिसमें आज भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई घर्मो को मानने वाले भगवान भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के प्रथम दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को प्राप्त किया गया। [14]। १९३४ की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।
    जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्‍य सिद्ध नहीं करना चाहते थे जिसे राज[15] के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्‍था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
    गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही १९३६ में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्‍यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्‍य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। १९३८ में राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी[16] जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।

    द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन

    द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर[17] पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारतीय सीमा[18] से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।
    गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्‍वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।[19] पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।
    गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में ९ अगस्त १९४२ को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणे के आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका ५० साल पुराना सचिव महादेव देसाई ६ दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के १८ महीने जेल में रहने के बाद २२ फरवरी १९४४ को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्‍य और जरूरी उपचार के कारण ६ मई १९४४ को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्‍ठुर दमन ने १९४३ के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग १००,००० राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।

    स्वतंत्रता और भारत का विभाजन

    गांधी जी ने १९४६ में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन (British Cabinet Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन संदेह होना था इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि कुछ समय से गांधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी (हालांकि उसके नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग के पास चला जाएगा। १९४८ के बीच लगभग ५००० से भी अधिक लोगों को हिंसा के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिंदुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे[तथ्य वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाबसिंधउत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल[तथ्य वांछित] में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि गांधी जी बंटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना बसंभव था चुकि पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति मजबूत थी। गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।
    उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने के लिए गहन विचार विमर्श किया। १९४७ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार ५५ करोड़ रू0 न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्य‍क्त किया और एक दूसरे[20] के साथ समझौता करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू0 का भुगतान करने के लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जाएगी। उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से नया कर देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जा का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का मानने से इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा पाकिस्तान को भुगतान कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने उन्हें विश्‍वास दिलाया कि वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस[21] पीकर अपना अनशन तोड़ दिया।

    हत्या

    राज घाट (Raj Ghat):आगा खान पैलेस में गांधी की अस्थियां (पुणे, भारत) .
    मैनचेस्टर गार्जियन, १८ फरवरी१९४८, की गलियों से ले जाते हुआ दिखाया गया था।
    ३० जनवरी१९४८, गांधी की उस समय गोली मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान[22] को भुगतान करने के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा १५ नवंबर १९४९ को इन्हें फांसी दे दी गई। राजधाटनई दिल्ली, में गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी जी को गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।[23]जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया :
    गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद के संगमपर १२ फरवरी १९४८ को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग[24] पवित्र रूप में रख दिया गया। १९९७ में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम[24][25] नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। ३० जनवरी२००८ को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय[24] में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे[24] में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स.[26]रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मंदिरों .[24] को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।

    गांधी के सिद्धांत

    इन्हें भी देखें: गांधीवाद

    सत्य

    गांधी जी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिए अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया।
    गांधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं , भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। .गांधी जी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्य‍क्त किया जब उन्होंने कहा भगवान ही सत्य है बाद में उन्होने अपने इस कथन को सत्य ही भगवान है में बदल दिया। इस प्रकार , सत्य में गांधी के दर्शन है " परमेश्वर " .

    अहिंसा

    हालांकि गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्कुल नहीं थे फिर भी इसे बड़े पैमाने [27]पर राजनैतिक क्षेत्र में इस्तेमाल करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। अहिंसा (nonviolence), अहिंसा (ahimsa) और अप्रतिकार(nonresistance)का भारतीय धार्मिक विचारों में एक लंबा इतिहास है और इसके हिंदु, बौद्ध, जैन, यहूदी और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ " (The Story of My Experiments with Truth)में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्हें कहते हुए बताया गया था:
    जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका पतन ही होता है -इसका सदैव विचार करें।
    " मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा है।
    एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।
    मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।
    इन सिद्धातों को लागू करने में गांधी जी ने इन्हें दुनिया को दिखाने के लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुंह नहीं मोड़ा जहां सरकार, पुलिस और सेनाए भी अहिंसात्मक बन गईं थीं। " फॉर पसिफिस्ट्स."[28] नामक पुस्तक से उद्धरण लिए गए हैं।
    विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को तानाशाही , शुद्ध और सरलता की ओर ले जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतंत्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है।प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न शक्ति से हजार गुणा अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निन्दा करने जैसा होगा कि कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतंत्र होगा;;;;;;संपूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता
    वाला समाज होगा।
    मैं ने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की जरूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्‍वास रखने वालों से किया जाएगा। लोग उनकी हर संभव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे ...श्रम और पूंजी तथा हड़तालों के बीव हिंसक झगड़े बहुत कम होंगे और अहिंसक राज्यों में तो बहुत कम होंगे क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी;;;;;;
    । शांति एवं अव्यवस्था के समय सशस्त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई
    अहिंसात्मक कार्य उनका यह कर्तव्य होगा कि वे विजय दिलाने वाले समुदायों को एकजुट करें जिसमें शांति का प्रसार, तथा ऐसी गतिविधियों का समावेश हो जो किसी भी व्यक्ति को उसके चर्च अथवा खंड में संपर्क बनाए रखते हुए अपने साथ मिला लें। इस प्रकार की सैना को किसी भी आपात स्थिति से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा भीड़ के क्रोध को शांत करने के लिए उसके पास मरने के लिए सैनिकों की पर्याप्त नफरी भी होनी चाहिए;;;;;;सत्याग्रह (सत्यबल) के बिग्रेड को प्रत्येक गांव तथा शहर तक भवनों के प्रत्येक ब्लॉक में संगठित किया जा सकता हैयदि अहिंसात्मक समाज पर हमला किया जाता है तब अहिंसा के दो मार्ग खुलते हैं। अधिकार पाने के लिए हमलावर से सहयोग न करें बल्कि समर्पण करने की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाना पसंद करें। दूसरा तरीका होगा ऐसी जनता द्वारा अहिंसक प्रतिरोध करना हो सकता है जिन्हें अहिंसक तरीके से प्रशिक्षित किया गया हो ...इस अप्रत्याशित प्रदर्शन की अनंत राहों पर आदमियों और महिलाओं को हमलावर की इच्छा लिए आत्मसमर्पण करने की बजाए आसानी से मरना अच्छा लगता है और अंतंत: उसे तथा उसकी सैनिक बहादुरी के समक्ष पिघलना जरूर पड़ता है;;;;। ऐसे किसी देश अथवा समूह जिसने अंहिंसा को अपनी अंतिम नीति बना लिया है उसे परमाणु बम भी अपना दास नहीं बना सकता है। उस देश में अहिंसा का स्तर खुशी-खुशी गुजरता है तब वह प्राकृतिक तौर पर इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसे सार्वभोमिक आदर
    मिलने लगता है।
    इन विचारों के अनुरूप १९४० में जब नाजी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्न दिखाई दिए तब गांधी जी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध [29]में अहिंसा की निम्नलिखित नीति का अनुसरण करने को कहा।
    मैं आपसे हथियार रखने के लिए कहना पसंद करूंगा क्योंकि ये आपको अथवा मानवता को बचाने में बेकार हैं।आपको हेर हिटलर और सिगनोर मुसोलिनी को आमत्रित करना होगा कि उन्हें देशों से जो कुछ चाहिए आप उन्हें अपना अधिकार कहते हैं।यदि इन सज्जनों को अपने घर पर रहने का चयन करना है तब आपको उन्हें खाली करना होगा।यदि वे तुम्हें आसानी से रास्ता नहीं देते हैं तब आप अपने आपको , पुरूषों को महिलाओं को और बच्चों की बलि देने की अनुमति देंगे किंतु अपनी निष्ठा के प्रति झुकने से इंकार करेंगे।
    १९४६ में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया।
    यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था।उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फैंक देना चाहिए था।
    फिर भी गांधी जी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्तर को अटूट विश्वास और साहस की जरूरत होगी और इसके लिए उसने महसूस कर लिया था कि यह हर किसी के पास नहीं होता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है खास तौर पर उस समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।
    गांधी जी ने अपने सत्याग्रह आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा प्रतिरोध करने में स्वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्होंने लिखा कि मैं मानता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूंगा।[30]
    प्रत्येक सभा पर मैं तब तक चेतावनी दोहराता रहता था जब तक वन्हें यह अहसास नहीं हो जाता है कि वे एक ऐसे अंहिसात्मक बल के अधिकार में आ गए हैं जिसके अधिकार में वे पहले भी थे और वे उस प्रयोग के आदि हो चुके थे और उनका मानना था कि उन्हें अहिंसा से कुछ लेना देना नहीं हैं तथा फिर से हथियार उठा लिए थे। खुदाई खिदमतगार (Khudai Khidmatgar)के बारे में ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए कि जो एक बार इतने बहादुर थे कि बादशाह खान (Badshah Khan)के प्रभाव में अब वे डरपोक बन गए। वीरता केवल अच्छे निशाने वालों में ही नहीं होती है बल्कि मृत्यु को हरा देने वालों में तथा अपनी छातियों को गोली [31]
    खाने के लिए सदा तैयार रहने वालों में भी होती है।

    शाकाहारी रवैया

    बाल्यावस्था में गांधी को मांस खाने का अनुभव मिला। ऐसा उनकी उत्तराधिकारी जिज्ञासा के कारण ही था जिसमें उसके उत्साहवर्धक मित्र शेख मेहताब का भी योगदान था। वेजीटेरियनिज्म का विचार भारत की हिंदु और जैन प्रथाओं में कूट-कूट कर भरा हुआ था तथा उनकी मातृभूमि गुजरात में ज्यादातर हिंदु शाकाहारी ही थे। इसी तरह जैन भी थे। गांधी का परिवार भी इससे अछूता नहीं था। पढाई के लिए लंदन आने से पूर्व गांधी जी ने अपनी माता पुतलीबाई और अपने चाचा बेचारजी स्वामी से एक वायदा किया था कि वे मांस खाने, शराब पीने से तथा संकीणता से दूर रहेंगे। उन्होने अपने वायदे रखने के लिए उपवास किए और ऐसा करने से सबूत कुछ ऐसा मिला जो भोजन करने से नहीं मिल सकता था, उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त दर्शन के लिए आधार जो प्राप्त कर लिया था। जैसे जैसे गांधी जी व्यस्क होते गए वे पूर्णतया शाकाहारी बन गए। उन्होंने द मोरल बेसिस ऑफ वेजीटेरियनिज्म तथा इस विषय पर बहुत सी लेख भी लिखें हैं जिनमें से कुछ लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के प्रकाशन द वेजीटेरियन [32]में प्रकाशित भी हुए हैं। गांधी जी स्वयं इस अवधि में बहुत सी महान विभूतियों से प्रेरित हुए और लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के चैयरमेन डॉ० जोसिया ओल्डफील्ड के मित्र बन गए।
    हेनरी स्टीफन ‍साल्ट (Henry Stephens Salt)की कृतियों को पढने और प्रशंषा करने के बाद युवा मोहनदास गांधी शाकाहारी प्रचारक से मिले और उनके साथ पत्राचार किया। गांधी जी ने लंदन में रहते समय और उसके बाद शाकाहारी भोजन की वकालत करने में काफी समय बिताया। गांधी जी का कहना था कि शाकाहारी भोजन न केवल शरीर की जरूरतों को पूरा करता है बल्कि यह आर्थिक प्रयोजन की भी पूर्ति करता है जो मांस से होती है और फिर भी मांस अनाज, सब्जियों और फलों से अधिक मंहगा होता है। इसके अलावा कई भारतीय जो आय कम होने की वजह से संघर्ष कर रहे थे, उस समय जो शाकाहारी के रूप में दिखाई दे रहे थे वह आध्यात्मिक परम्परा ही नहीं व्यावहारिकता के कारण भी था.वे बहुत देर तक खाने से परहेज रखते थे , और राजनैतिक विरोध के रूप में उपवास रखते थे उन्होंने अपनी मृत्यु तक खाने से इनकार किया जब तक उनका मांग पुरा नही होता उनकी आत्मकथा में यह नोट किया गया है कि शाकाहारी होना ब्रह्मचर्य में गहरी प्रतिबद्धता होने की शुरूआती सीढ़ी है, बिना कुल नियंत्रण ब्रह्मचर्य में उनकी सफलता लगभग असफल है.
    गाँधी जी शुरू से फलाहार (frutarian),[33] करते थे लेकिन अपने चिकित्सक की सलाह से बकरी का दूध पीना शुरू किया था.वे कभी भी दुग्ध -उत्पाद का सेवन नही करते थे क्योंकि पहले उनका मानना था की दूध मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्हें गाय के चीत्कार सेघृणा (cow blowing),[34] थी और सबसे महत्वपूर्ण कारण था शपथ जो उन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ से किया था

    ब्रह्मचर्य

    जब गाँधी जी सोलह साल के हुए तब उनके पिताश्री की तबियत बहुत ख़राब थी उनके पिता की बीमारी के दौरान वे हमेशा उपस्थित रहते थे क्योंकि वे अपने माता-पिता के प्रति अत्यंत समर्पित थे. यद्यपि, गाँधी जी को कुछ समय की राहत देने के लिए एक दिन उनके चाचा जी आए वे आराम के लिए शयनकक्ष पहुंचे जहाँ उनकी शारीरिक अभिलाषाएं जागृत हुई और उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेम किया नौकर के जाने के पश्चात् थोडी ही देर में ख़बर आई की गाँधी के पिता का अभी अभी देहांत हो गया है.गाँधी जी को जबरदस्त अपराध महसूस हुआ और इसके लिए वे अपने आप को कभी माफ नहीं कर सकते थे उन्होंने इस घटना का जिक्र दोहरी शर्म में किया इस घटना का गाँधी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और वे ३६ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य (celibate) की और मुड़ने लगे, जबकि उनकी शादी हो चुकी थी.[35]
    यह निर्णय ब्रह्मचर्य (Brahmacharya) के दर्शन से पुरी तरह प्रभावित था आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य और वैराग्यवाद (asceticism) से जुदा होता है.गाँधी ने ब्रह्मचर्य को भगवान् के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था अपनी आत्मकथा में वे अपनी बचपन की दुल्हन कस्तूरबा (Kasturba) के साथ अपनी कामेच्छा और इर्ष्या के संघर्षो को बतातें हैं उन्होंने महसूस किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है की उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें गाँधी के लिए, ब्रह्मचर्य का अर्थ था "इन्द्रियों के अंतर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण".[36]

    सादगी

    गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन (simple life) की और ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे. उनकी सादगी (simplicity) ने पश्चमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में फैलने लगे थे इसे वे "ख़ुद को शुन्य के स्थिति में लाना" कहते हैं जिसमे अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं धोना आवश्यक है.[37]एक अवसर पर जन्मदार की और से सम्मुदय के लिए उनकी अनवरत सेवा के लिए प्रदान किए गए उपहार को भी वापस कर देते हैं.[38]
    गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे.उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आतंरिक शान्ति (inner peace) मिलाती है. उनपर यह प्रभाव हिंदू मौन सिद्धांत का है, (संस्कृत: - मौन) और शान्ति(संस्कृत: -शान्ति)वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ संपर्क करते थे 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षों तक गांधी जी ने अख़बारों को पढ़ने से इंकार कर दिया जिसके जवाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था है उसने उसे अपनी स्वयं की आंतरिक अशांति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।
    जॉन रस्किन (John Ruskin) की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last), पढने के बाद उन्होंने अपने जीवन शैली में परिवर्तन करने का फैसला किया तथा एक समुदाय बनाया जिसे अमरपक्षी अवस्थापन कहा जाता था.
    दक्षिण अफ्रीका, जहाँ से उन्होंने वकालत पूरी की थी तथा धन और सफलता के साथ जुड़े थे वहां से लौटने के पश्चात् उन्होंने पश्चमी शैली के वस्त्रों का त्याग किया.उन्होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्त्र पहने जाते हैं उसे स्वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपड़े (खादी) पहनने की वकालत भी की.गाँधी और उनके अनुयायियों ने अपने कपड़े सूत के द्वारा ख़ुद बुनने के अभ्यास को अपनाया और दूसरो को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया हालाँकि भारतीय श्रमिक बेरोज़गारी के कारण बहुधा आलसी थे, वे अक्सर अपने कपड़े उन औद्योगिक निर्माताओं से खरीदते थे जिसका उद्देश्य ब्रिटिश हितों को पुरा करना था. गाँधी का मत था कि अगर भारतीय अपने कपड़े ख़ुद बनाने लगे, तो यह भारत में बसे ब्रिटिशों को आर्थिक झटका लगेगा. फलस्वरूप, बाद में चरखा (spinning wheel) को भारतीय राष्ट्रीय झंडा में शामिल किया गया. अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी

    विश्वास

    गाँधी का जन्म हिंदू धर्म में हुआ, उनके पुरे जीवन में अधिकतर सिधान्तों की उत्पति हिंदुत्व से हुआ. साधारण हिंदू कि तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे, और सारे प्रयासों जो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कोशिश किए जा रहे थे उसे अस्वीकार किया. वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से पढ़तें थे. उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में निम्नलिखित कहा है.
    हिंदू धर्म के बारें में जितना मैं जानता हूँ यह मेरी आत्मा को संतुष्ट करती है, और सारी कमियों को पूरा करती है जब मुझे संदेह घेर लेती है, जब निराशा मुझे घूरने लगती है, और जब मुझे आशा की कोई किरण नजर नही आती है, तब मैं भगवद् गीता को पढ़ लेता हूँ और तब मेरे मन को असीम शान्ति मिलती है और तुंरत ही मेरे चेहरे से निराशा के बादल छंट जातें हैं और मैं खुश हो जाता हूँ.मेरा पुरा जीवन त्रासदियों से भरा है और यदि वो दृश्यात्मक और अमिट प्रभाव मुझ पर नही छोड़ता, मैं इसके लिए भगवत गीता के उपदेशों का ऋणी हूँ.
    गाँधी स्मृति ( जिस घर में गाँधी ने अपने अन्तिम ४ महीने बिताएं वह आज एक स्मारक बन गया है ,नई दिल्ली)
    गाँधी ने भगवद गीता की व्याख्या गुजराती में भी की है.महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था .[39][40]
    गाँधी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है ( संवेदना, अहिंसा और स्वर्ण नियम (the Golden Rule)) ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्होंने सभी धर्मो के सिधान्तों से सवाल किए और वे एक अथक समाज सुधारक थे.उनकी कुछ टिप्पणियां विभिन्न धर्मो पर है ;
    यदि मैं ईसाई धर्म को आदर्श के रूप में या महानतम रूप में स्वीकार नहीं कर सकता तो कभी भी मैं हिन्दुत्व के प्रति इस प्रकार दृड़ निश्चयी नहीं बन पाता. हिंदू दोष दुराग्रह्पुर्वक मुझे दिखाई देती थी यदि अस्पृश्यता हिंदुत्व का हिस्सा होता तो वह इसका सबसे सडा अंग होता.सम्प्रदायों की अनेक जातियों और उनके अस्तित्व को मैं कभी समझ नहीं सकता इसका क्या अर्थ है कि वेद परमेश्वर के शब्द से प्रेरित है?यदि वें प्रेरित थे तो क्यों नहीं बाइबल और कुरान ?ईसाई दोस्त मुझे परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं तो मुस्लिम दोस्त क्या करेंगे अब्दुल्लाह शेठ मुझे हमेशा इस्लाम का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करते थे और निश्चित रूप से हमेशा इस्लाम की सुन्दरता का ही बखान करते थे ( स्रोत : उनकी आत्मकथा (his autobiography))
    जितना जल्दी हम नैतिक आधार से हारेंगे उतना ही जल्दी हममे धार्मिक युद्ध समाप्त हो जायेगी ऐसी कोई बात नहीं है की धर्म नैतिकता के उपर हो उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्य असत्यवादी, क्रूर या असंयमी हो और वह यह दावा करे की परमेश्वर उसके साथ हैं कभी हो ही नहीं सकता
    मुहम्मद की बातें ज्ञान का खजाना है सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के लिए
    बाद में उनके जीवन में जब पूछा गया कि क्या तुम हिंदू हो, उन्होंने कहा:
    "हाँ मैं हूँ.मैं भी एक ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और यहूदी हूँ."
    एक दूसरे के प्रति गहरा आदर भाव होने के बावजूद गाँधी और रबिन्द्रनाथ टैगोर एक से अधिक बार लम्बी बहस में लगे रहे. ये वाद विवाद दोनों के दार्शनिक मतभेद को दर्शाती है और ये दोनों ही उस समय के प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक थे १५ जनवरी १९३४ में बिहार में एक भूकंप आया और जिसके कारण व्यापक नुकसान हुआ और कई जानें गईं गाँधी जी ने अपने आप को संभाला क्योंकि यह पाप हिंदू धर्म के उच्च जाती वर्गों के द्वारा किया गया था जो अपने मंदिरों में अछूतों को अंदर जाने से मना करते थे ( गाँधी के कारण ही छुआछुत में वृद्धि हुई थी क्योंकि उन्होंने उन्हें हरिजन (Harijan), कृष्ण के लोग कहा था, गाँधी के विचारों काटगोर (Tagore) ने जोरदार विरोध किया और कहा कि भूकंप नैतिक कारणों से नही प्राकृतिक शक्तियों से होती हैं, चाहे वह अस्पृश्यता की प्रथा के कितने ही विरुद्ध हो.[41]

    लेखन

    गाँधीजी द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ
    गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजनइंडियन ओपिनियनयंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ।[42] इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा
    गाँधी ने कुछ किताबें भी लिखी अपनी आत्मकथा के साथ, एक आत्मकथा या सत्य के साथ मेरे प्रयोग (An Autobiography or My Experiments with Truth)दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह, वहां के संघर्षो के बारें में, हिंद स्वराज या इंडियन होम रुल, राजनैतिक प्रचार पत्रिका और जॉन रस्किन कीअन्टू दिस लास्ट (Unto This Last) की गुजराती में व्याख्या की है।[43] अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार से लिखा है। गाँधी आमतौर पर गुजराती में लिखतें थे परन्तु अपनी किताबों का हिदी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते थे।
    गाँधी का पूरा कार्य महात्मा गाँधी के संचित लेख नाम से १९६० में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह लेखन लगभग ५०००० पन्नों में समाविष्ट है और तक़रीबन सौ खंडों में प्रकाशित है। सन २००० में गाँधी के पुरा कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनितिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.[44]

    गाँधी पर पुस्तकें

    कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन वर्णन का कार्य लिया है उनमें से दो कार्य अलग हैं;डीजी तेंदुलकर अपने महात्मा के साथ. मोहनदास करमचंद गाँधी का जीवन आठ खंडों में है और महात्मा गाँधी के साथप्यारेलाल और सुशीला नायर १० खंडों में है। कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा की अपने तथ्यात्मक शोध पुस्तक गाँधी: बेहायिंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने २० वर्ष[45] लगा दिए

    कथित समलैंगिक प्रेम संबंध

    २०११ में प्रकाशित किताब ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने महात्मा गाँधी और उनके दक्षिण अफ़्रीका में रहे सहयोगी हर्मन केलेनबाख के रिश्तों को अनन्य प्रेम सम्बन्ध बताया है। पुस्तक के प्रकाशन के समय इस कारण से भारत में विवाद हो गया, और गाँधी के गृह राज्य गुजरात की विधान सभा ने एक संकल्प के माध्यम से इस पुस्तक की बिक्री प्र रोक लगा दी।[46] लेलीवेल्ड के मुताबिक, उनकी पुस्तक के आधार पर गाँधी की समलैंगी या द्विलिंगी होने के लगाए जा रहे आंकलन गलत हैं। उन्होंने कहा, "यह किताब ये नहीं कहती कि गाँधी समलैंगिक या द्विलिंगी थे।यह [किताब] कहती है कि [गाँधी] ब्रह्मचारी थे, और कैलेनबाख से गहरे [दिल] से जुडे थे। और यह कोई नई जानकारी नहीं है।" [47](यथाशब्द)।

    गांधी और कालेनबाख

    महात्मा गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों को 1.28 मिलियन डॉलर (करीब 6.88 करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है। 2012 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे जिन्हें कुछ समीक्षक ‘प्रेम पत्र’ कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी विवादित रहा था।[48]

    अनुयायियों और प्रभाव

    महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।[49] विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे।[50] और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,[51]स्टीव बिको औरऔंग सू कई (Aung San Suu Kyi) हैं।[52]
    गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजील की अराजकतावादी (anarchist) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.[53]लांजा देल वस्तो (Lanza del Vasto) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की.(गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।
    इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।[54] २००७ में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (Cannes Lions International Advertising Festival), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया.[55]

    पैतृक सम्पति

    शत वर्षीय महात्मा गाँधी की मूर्ति व्यापारिक क्षेत्र के केंद्रीय स्थानपिएतेर्मारित्ज्बुर्ग (Pietermaritzburg), दक्षिण अफ्रीका में है।
    २ अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है १५ जून २००७ को यह घोषणा की गई थी कि "सयुंक्त राष्ट्र महा सभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि २ अक्टूबर (2 October) को "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.[56]
    अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थआत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रबिन्द्रनाथ टगोर ने सबसे पहले गाँधी कोमहात्मा का खिताब दिया था।[57] अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने २१ जनवरी १९१५ में उन्हें यह खिताब दिया था।[58] हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नही लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं।[59] मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिएमहात्मा नाम मिला है।[60]

    १९३० में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाI १९९९ में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामालेच वालेसाडॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियरसेसर शावेज़औंग सान सू कईबेनिग्नो अकुइनो जूनियरडेसमंड टूटूऔर नेल्सन मंडेला को गाँधी के पुत्र के रूप में कहा और उनके अहिंसा के आद्यात्मिक उतराधिकारी.[61] भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शांति पुरुस्कार से पुरुस्कृत करती है। नेल्सन मंडेला, साऊथ अफ्रीका के नेता जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे हैं, इस पुरूस्कार के लिए एक प्रवासी भारतीय के रूप में प्रबल दावेदार हैं।

    १९९६ में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों के मुद्रण को १, ५, १०, २०, ५०, १००, ५०० और १००० के अंकन के रूप में आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र है। १९६९ में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की.
    नई दिल्ली में गाँधी स्मृति पर सहादत स्तम्भ उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर उनकी हत्या हुयी.
    यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौकलन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की. यूनाइटेड किंगडम में जनवरी ३० को “राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस” मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर मेंयूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्गदक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन मेंन्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।
    गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नही हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है .[62] दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था।[63] गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नही दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नही था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरुष्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने ये कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रधांजलि का ही हिस्सा है।"[64]
    राज घाट, नई-दिल्ली, भारत में, उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर १९४८ में गाँधी का दाह-संस्कार हुआ था
    बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी१९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया. यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।
    प्रति वर्ष ३० जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (DENIP मनाया जाता है जिसकी स्थापना १९६४स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां ३० मार्च को इसे मनाया जाता है।

    आदर्श और आलोचनाएँ

    महात्मा गांधी (Józef Gosławski, 1932)
    गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (pacifism) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।

    विभाजन की संकल्पना

    नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।[65] ६ अक्टूबर १९४६ में हरिजन में उन्होंनेभारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:
    (पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए.इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए.[66]
    फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा है।"[67].
    भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए. मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की.विनायक दामोदर सावरकार और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा).[68] यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नही थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित करते हैं की उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।
    गाँधी ने १९३० के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी। २६ अक्टूबर १९३८ को उन्होंने हरिजन में कहा था:
    मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करुँ कि जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता हूँ (persecution of the Jews in Germany). ऐसा नही कि इस कठिन प्रश्न पर अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा. मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों के द्वारा ही मुझे लंबे समय से हो रहे उत्पीडन के बारे में जानकारी मिली. वे ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं। क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह इनलैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता.[69][70]

    हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति

    जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंहसुखदेवउदम सिंहराजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी.[71][72]
    इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए."[73]
    उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (persecution of the Jews in Germany) को सत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की
    अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा . और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंद प्रदान करेगा और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी. अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंद के दिन में बदल जाएगा जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.[74]
    गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नही है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[75] उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब"[76] और "यहूदी और फिलिस्तीन"[77] में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[75]
    यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की आलोचना को आकर्षित किया।[78]मार्टिन बूबर (Martin Buber), जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं ने गाँधी को २४ फरवरी१९३९को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लिखा. बूबर ने दृढ़ता के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब भारतीय उत्पीडन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन किया।[79]
    गाँधी ने १९३० में जर्मनी में यहूदियों (persecution of the Jews in Germany) के उत्पीडन को सत्याग्रह के भीतर ही सन्दर्भित कहा। नवम्बर १९३८ में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया:
    आभास होता है कि यहूदियों के जर्मन उत्पीडन का इतिहास में कोई सामानांतर नही. पुराने जमाने के तानाशाह कभी इतने पागल नही हुए जितना कि हिटलर हुआ और इसे वे धार्मिक उत्साह के साथ करते हैं कि वह एक ऐसे अनन्य धर्म और जंगी राष्ट्र को प्रस्तुत कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी अमानवीयता मानवीयता का नियम बन जाती है जिसे अभी और भविष्य में पुरुस्कृत किया जायेगा. जाहिर सी बात है कि एक पागल परन्तु निडर युवा द्वारा किया गया अपराध सारी जाति पर अविश्वसनीय उग्रता के साथ पड़ेगा.यदि कभी कोई न्यायसंगत युद्ध मानवता के नाम पर, तो एक पुरी कॉम के प्रति जर्मनी के ढीठ उत्पीडन के खिलाफ युद्ध को पूर्ण रूप से उचित कहा जा सकता हैं। पर मैं किसी युद्ध में विश्वास नही रखता. इसे युद्ध के नफा-नुकसान के बारे में चर्चा मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। परन्तु जर्मनी द्वारा यहूदियों पर किए गए इस तरह के अपराध के खिलाफ युद्ध नही किया जा सकता तो जर्मनी के साथ गठबंधन भी नही किया जा सकता यह कैसे हो सकता हैं कि ऐसे देशों के बीच गठबंधन हो जिसमे से एक न्याय और प्रजातंत्र का दावा करता हैं और दूसरा जिसे दोनों का दुश्मन घोषित कर दिया गया है?"[80][81]

    दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख

    गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं ७ मार्च१९०८ को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।"[82] १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए."[83] दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं".[84] यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में (a different connotation) इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था (its present-day usage). गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।[85]
    इतिहास के दो प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रन्थ द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३ - १९१४ में इस विवाद की जांच की है।(नई दिल्ली:मनोहर,२००५).[86] अध्याय एक के केन्द्र में,"गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे अफ्रीकी और भारतीय" जो कि "श्वेत आधिपत्य" में अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा है) इस सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, "युवा गाँधी १८९० में उन विभाजीय विचारों से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।"[87] साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं, "गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था।..आगे गाँधी दृढ़ हो गए थे; वे अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी."[88]
    दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी हैं,[50] २००३ में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया।[85] भाना और वाहेद ने अनावरण के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १९१३-१९१४ में टिप्पणी किया है। अनुभाग " दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत" में वे लिखते हैं " गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को ख़त्म करने के लिये प्रेरित किया। यह विरासत उन्हें नेल्सन मंडेला से जोड़ती हैं।.माने यह कि जिस कम को गाँधी ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया।"[89] वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे।[90] गाँधी के प्रति इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरुप, भाना और वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों को नजरंदाज करते हुए कारन में कुछ ज्यादा मदद नही करते; और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी ग़लत बयानी के उतने ही दोषी हैं/विकृति के उतने ही दोषी हैं।"[91]

    राज्य विरोधी

    गाँधी राज विरोधी (anti statist) उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो.[92] उनका विचार था कि एक देश में सच्चे स्वशासन (self rule) का अर्थ है कि प्रत्यक व्यक्ति ख़ुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य नही जो लोगों पर कानून लागु कर सके.[93][94] कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक अराजकतावादी कहा है (philosophical anarchist).[95] उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों छोटे छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवतः टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो के अड़चन बने ख़ुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नही था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है.[96] ब्रिटिश ढंग के संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर प्रत्यक्ष लोकतंत्र (direct democracy) प्रणाली को[97] स्थापित करना चाहते थे।[98]

    गांधी जी की आलोचना

    गांधी के सिद्धान्तों और करनी को लेकर प्रयः उनकी आलोचना भी की जाती है। उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं-
    • दोनो विश्वयुद्धों में अंग्रेजों का साथ देना,
    • सशस्त्र क्रान्तिकारियों के अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करना,
    • भारत की स्वतंत्रता के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना,
    • स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये देने की जिद पर अनशन करना,