Saturday 25 July 2020



कठिन परिस्थितियों में दुश्मन को हराने में भारतीय सेना की बहादुरी की याद हर भारतीय के मन में #करगिल_विजय_दिवस के रूप में जीवित है। मैं उन शूरवीरों को नमन करता हूँ, जिन्होंने अपने प्राणों का बलिदान देते हुए कारगिल में विजय प्राप्त की थी, अपने अदम्य साहस से करगिल की दुर्गम पहाड़ियों से दुश्मन को खदेड़ कर वहाँ पुनः तिरंगा लहराया। जिसके लिए हम सभी देशवासी भारतीय सेना के सदैव ऋणी रहेंगे।

Tuesday 21 July 2020


22 जुलाई 1947 आज ही के दिन ही बना था विजयी विश्व तिरंगा 🇮🇳 प्यारा हमारा !
भारतीय #तिरंगे #दिवस की समस्त देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

 
छह चरणों में बदला है अपना तिरंगा

 1906 में फहराया गया था पहला तिरंगा, ऐसे बदलता गया स्वरूप, जानें क्या है इसकी पूरी कहानी

अपना देश इस बार 73वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है। हर बार की तरह इस बार हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा शान से फहराया जाएगा। वर्तमान में तिरंगे का जो स्वरूप है, दरअसल वह पहला नहीं है, बल्कि राष्ट्र ध्वज के रूप में यह इसका छठा स्वरुप है। जानना दिलचस्प होगा कि आखिर किस तरह बदलता गया अपना तिरंगा।

हर स्वतंत्र राष्ट्र का अपना एक ध्वज होता है। अभी जो अपना तिरंगा है, उसे 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था। यह बैठक 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से देश के आजाद होने से कुछ दिन पहले हुई थी। तिरंगे को 15 अगस्त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया और इसके बाद भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया।

आजादी के लड़ाई के दौरान हुआ राष्ट्रध्वज का विकास

यह जानना अत्यंत रोचक है कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्वतंत्रता के राष्ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्यता दी गई। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौरों में से गुजरा। एक रूप से यह राष्ट्र में राजनीतिक विकास को दर्शाता है।

7 अगस्त 1906 को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था।

इस ध्वज को पेरिस में मैडम कामा और 1907(कुछ के अनुसार 1905 में) में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था। यह भी पहले ध्वज के समान था, सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था, लेकिन सात तारे सप्तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करता है।

गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।

वर्ष 1931 ध्वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्वज को हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह ध्वज जो वर्तमान स्वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। साथ ही यह स्पष्ट रूप से बताया गया इसका कोई सांप्रदायिक महत्व नहीं था।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने इसे मुक्त भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया। स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा। केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंतत: स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना। 

Sunday 19 July 2020


स्वतंत्रता संग्राम में भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में धमाका कर अंग्रेज़ी हुकूमत को दहलाने वाले अग्रणी भूमिका निभाने वाले महान राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की की पुण्‍यतिथि पर उन्हें 
कोटि-कोटि नमन।

बटुकेश्वर दत्त: एक क्रांतिकारी की दर्दनाक कहानी, जिन्हें आजाद भारत में न नौकरी मिली न ईलाज!  

Batukeshwar Dutt Death Anniversary: देश की आजादी के लिए कालापानी सहित करीब 15 साल तक जेल की सजा काटने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के फैन थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh), लेकिन आजादी (Independence) मिलने के बाद हमारे सिस्टम ने उनके साथ कैसा सलूक किया. पुण्‍यतिथि पर इस महान क्रांतिकारी को श्रद्धांजलि.

बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) ऐसे महान क्रांतिकारी हैं जिनके फैन शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Bhagat Singh) भी थे. तभी तो उन्होंने लाहौर (Lahore) सेंट्रल जेल में दत्त का ऑटोग्राफ लिया था. लेकिन आजाद भारत की सरकारों को दत्त की कोई परवाह नहीं थी. इसका जीता जागता उदाहरण उनका जीवन संघर्ष है. देश की आजादी के लिए करीब 15 साल तक सलाखों के पीछे गुजारने वाले बटुकेश्वर दत्त को आजाद भारत (India) में नौकरी के लिए भटकना पड़ा. उन्हें कभी सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर पटना की सड़कों पर घूमना पड़ा. जिस आजाद भारत में उन्हें सिर आंखों पर बैठाना चाहिए था उसमें उनकी घोर उपेक्षा हुई.

'गुमनाम नायकों की गौरवशाली गाथाएं' नामक अपनी किताब में विष्णु शर्मा ने दत्त के बारे में विस्तार से लिखा है. उनके मुताबिक दत्त के दोस्त चमनलाल आजाद ने एक लेख में लिखा, 'क्या दत्त जैसे कांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी भूल की है. खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है.'

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कहां हुआ था जन्म

बटुकेश्वर दत्‍त, बर्धमान (बंगाल) से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को औरी नामक एक गांव में पैदा हुए थे. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आए और वहां उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई. वह 1928 में गठित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने. यहीं पर उनकी भगत सिंह से मुलाकात हुई. उन्होंने बम बनाना सीखा. दोनों क्रांतिकारियों में दोस्ती कितनी गहरी थी इसकी एक मिसाल हुसैनीवाला में देखने को मिलती है.

तत्कालीन बिहार सरकार ने नहीं दिया ईलाज पर ध्यान

1964 में बटुकेश्वर दत्त बीमार पड़े. पटना के सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था. जानकारी मिलने पर पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का ईलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है. इस पर बिहार सरकार हरकत में आई. दत्त का इलाज शुरू किया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली (Delhi) लाया गया. यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे.

दोस्ती की ऐसी मिसाल कहां मिलेगी?

बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया. बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं. कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे. छलछलाती आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा, 'मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए.' 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर वो यह दुनिया छोड़ चुके थे. बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया.

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भगत सिंह की जेल डायरी के पेज नंबर 67 पर बटुकेश्वर दत्त का ऑटोग्राफ
भगत सिंह ने लिया था ऑटोग्राफ

भगत सिंह स्‍वतंत्रता सेनानी बटुकेश्‍वर दत्‍त के प्रशंसक थे. इसका एक सबूत उनकी जेल डायरी में है. उन्‍होंने बटुकेश्‍वर दत्‍त का एक ऑटोग्राफ लिया था. बटुकेश्‍वर और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे. बटुकेश्‍वर के लाहौर जेल से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह जेल के सेल नंबर 137 में उनसे मिलने गए थे. यह तारीख थी 12 जुलाई 1930. इसी दिन उन्‍होंने अपनी डायरी के पेज नंबर 65 और 67 पर उनका ऑटोग्राफ लिया. डायरी की मूल प्रति भगत सिंह के वंशज यादवेंद्र सिंह संधू के पास है. शहीद भगत सिंह ब्रिगेड के अध्‍यक्ष और उनके प्रपौत्र संधू ने बताया कि शहीद-ए-आजम बटुकेश्‍वर दत्‍त को अपना सबसे खास दोस्‍त मानते थे. यह ऑटोग्राफ भगत सिंह का उनके प्रति सम्‍मान था. शायद दोनों ने भांप लिया था कि अब उनकी मुलाकात नहीं होगी. इसलिए यह निशानी ले ली.

  कालापानी की सजा हुई थी

ब्रिटिश पार्लियामेंट (British Parliament) में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया. मकसद था स्वतंत्रता सेनानियों पर नकेल कसने के लिए पुलिस को ज्यादा अधिकार संपन्न करने का. दत्त और भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु इसका विरोध करना चाहते थे. दत्‍त ने 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेंबली में दो बम फोड़े और गिरफ्तारी दी. बटुकेश्‍वर ही सेंट्रल असेंबली में बम ले गए थे. यादवेंद्र संधू कहते हैं कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर बम फेंकने के अलावा सांडर्स की हत्या का इल्जाम भी था. इसलिए उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई. जबकि बटुकेश्वर को काला पानी की सजा हुई. उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया. उन्‍होंने कालापानी की जेल के अंदर भूख हड़ताल की.

वहां से 1937 में वे बांकीपुर सेंट्रल जेल, पटना लाए गए. 1938 में वो रिहा हो गए. फिर वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. इसलिए दत्त को दोबारा गिरफ्तार किया गया. चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. 1947 में देश आजाद हो गया. उस वक्त वो पटना में रह रहे थे.

यहां उन्हें गुजर-बसर करने के लिए सिगरेट कंपनी का एजेंट बनना पड़ा. टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी. उनकी पत्नी अंजली को एक निजी स्कूल में पढ़ाना पड़ा. पूरे सरकारी सिस्टम उनका कोई सहयोग नहीं किया. दत्त ने पटना में बस परमिट के लिए अप्लीकेशन दी. वहां कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का सबूत मांगकर तिरस्कार किया.

फांसी न होने से निराश थे दत्त

भगत सिंह के साथ फांसी न होने से बटुकेश्‍वर दत्त निराश हुए थे. वह वतन के लिए शहीद होना चाहते थे. उन्होंने भगत सिंह तक यह बात पहुंचाई. तब भगत सिंह ने उनको पत्र लिखा कि "वे दुनिया को ये दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सह सकते हैं." भगत सिंह की मां विद्यावती का भी बटुकेश्वर पर बहुत प्रभाव था, जो भगत सिंह के जाने के बाद उन्हें बेटा मानती थीं. बटुकेश्‍वर लगातार उनसे मिलते रहते थे.

News18 » Byline
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Thursday 16 July 2020


पाकिस्तान के खिलाफ 1971 के युद्ध में अद्वितीय साहस दिखाते हुए वीरगति प्राप्त करने वाले, परमवीर चक्र से सम्मानित, निर्मलजीत सिंह सेखों की जयंती पर शत्-शत् नमन




सन् 1971 की युद्ध में पाकिस्तान की वायुसेना के छक्के छुड़ाने वाले फ्लाइंग ऑफिसर शहीद निर्मलजीत सिंह सेखों का आज जन्मदिन है। इस जांबाज योद्धा का जन्म 1943 में पंजाब में हुआ था। उन्होंने 14 दिसंबर, 1971 को शौर्य और पराक्रम की ऐसी कहानी लिखी जो आज तक याद की जाती है। मरणोपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। भारतीय वायुसेना के इतिहास में वह परमवीर चक्र पाने वाले एक मात्र शहीद हैं।
बम बरसाते छह विमान सिर पर मंडरा रहे थे। बमों से हवाई पट्टी का हाल भी खस्ता हो गया था। ऐसे में जवाब देने के लिए कोई भी उड़ान भरे तो कैसे? उड़ान भरने का मतलब था निश्चित मौत। पर एक 28 वर्षीय शख्स से यह देखा नहीं गया। उसने अपना विमान स्टार्ट किया और मुकाबले के लिए आकाश में जा चढ़ा। दुश्मन को हैरान करने वाला वह रणबांकुरा था निर्मलजीत सिंह सेखों। रणभूमि में अदम्य साहस दिखाने के लिए निर्मल सिंह सेखों  को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। आज हम आपको बता रहे हैं कि चंद पलों में ही भारतमाता के इस सपूत ने किस तरह पाकिस्तान के घुटने टिकवा दिये।
  
पाकिस्तान के छह विमानों का हमला

वह 14 दिसंबर, 1971 का दिन था। निर्मलजीत सिंह श्रीनगर में तैनात थे। पाकिस्तान ने श्रीनगर हवाई अड्डे पर हमला कर दिया। एक के बाद एक उसके छह विमान आए और हवाई अड्डे को निशाना बनाना शुरू कर दिया। हमला अप्रत्याशित था। दुश्मन के हवाई जहाज गोता मारते, बम-गोलियां बरसाते और फिर आकाश की और बढ़ चलते। ऐसी स्थिति में हैंगर से विमान निकाल कर उड़ान भरना भी संभव प्रतीत नहीं हो रहा था। हैंगर से विमान निकाल कर उड़ान भरने तक एक निश्चित समय लगता है। और इस बीच अगर दुश्मन के विमान फिर आ पहुंचे तो रनवे पर खड़े विमान का नष्ट होना तय समझिए। दुश्मन के विमान पहले ही हमले में हवाई पट्टी को काफी नुकसान पहुंचा चुके थे।

निर्मलजीत सिंह सेखों जैसी हिम्मत किसी ने नहीं दिखाई

थोड़ी देर में चक्कर काटकर दुश्मन के विमान दोबारा आए। उन्होंने गोता लगाते हुए फिर बमबारी की और पुनः आने के लिए फिर आकाश की ओर बढ़ चले। पर इस बीच निर्मलजीत सिंह सेखों वक्त गंवाए बिना अपने विमान नेट में जा बैठे। इंजन स्टार्ट कर दिया। उन्होंने तेजी से हिसाब लगा लिया था कि दुश्मन के विमान को आने में कितना समय लगेगा। दुश्मन के विमान वापस आने के समय में चंद सेकंड का हेरफेर बड़ा खतरा साबित हो सकता था। क्षतिग्रस्त रनवे एक अलग खतरा था। पर निर्मलजीत सिंह ने खतरा उठाया। दुश्मन के विमान हमला कर जैसे ही पलटे उन्होंने अपने विमान को हवाई पट्टी पर मोड़ा और देखते ही देखते विमान हवा से बातें करना लगा।
इसी भारत-पाक युद्ध में मुस्तैदी के साथ अपनी भूमिका निभाने वाले मेजर जनरल (सेवा निवृत्त) सूरज प्रकाश भाटिया ने उनके बारे में लिखा है-‘दुश्मन के छह आधुनिक विमान सिर पर मंडरा रहे थे और नेट जैसे पुराने ढर्रे के विमान में बैठा एक अकेला जांबाज उनसे लोहा लेने ऊपर जा चढ़ा। ऐसी हिम्मत तो आज तक किसी ने नहीं दिखाई थी। ऐसा जोखिम भरा काम कोई विरला रणबांकुरा ही कर सकता है।’

सेखों ने दुश्मन के विमान के कर दिए दो टुकड़े
सचमुच विरले रणबांकुरे ही थे निर्मलजीत सिंह सेखों। उन्हें पता था कि पाकिस्तान के अपेक्षाकृत छह आधुनिक विमानों से मुकाबला आसान नहीं है। पर उन्हें अपने युद्ध कौशल और अपने प्यारे नेट विमान पर भरोसा था। दुश्मन हैरान कि उनके छह विमानों के हमले के बीच कौन है जो मुकाबले के लिए आ गया। सेखों ने दुश्मन के एक विमान को टारगेट कर अपने हवाई जहाज में लगी तोप दाग दी। तोप से निकले गोले ने दुश्मन के विमान के दो टुकड़े कर दिए। हमले से हक्का-बक्का दुश्मन कुछ समझ पाता इससे पहले ही सेखों ने दूसरे विमान पर गोला दागा। दूसरे विमान में आग लग गई।

अंतिम सांस तक मुकाबला करते रहे सेखों 

सूरज प्रकाश भाटिया लिखते हैं-‘अब रह गए दुश्मन के चार विमान और हमारा एक अकेला अलबेला। चाहते तो फ्लाइंग ऑफिसर अपने विमान को उनकी पकड़ के बाहर ले जा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।शत्रु के विमानों के साथ और दो-दो हाथ करने के लिए वे वहीं अड़े रहे।’
दुश्मन के चारों विमानों ने भारतीय रणबांकुरे सेखों को घेर लिया। काफी देर तक आकाश में जोर आजमाइश और पाकिस्तानी विमानों को छकाने के बाद निर्मलजीत सिंह देश के लिए बलिदान हो गए। रोंगटे खड़े कर देनी वाली यह घटना इतिहास का अभिन्न अंग बन गई और भावी पीढ़ियों को इस बात की प्ररेणा दे गई जान से ज्यादा कीमती मातृभूमि होती है। पाकिस्तानी पायलट भारतमाता के इस सपूत के सर्वोच्च बलिदान को देखकर हतप्रभ थे और उनके अंदर खौफ भी घर कर गया था कि कहीं ऐसा न हो कि सेखों जैसा कोई और आ जाए। इसलिए पाकिस्तान विमान दुम दबाकर वापस लौट गये औऱ दुबारा नहीं आए। सेखों के अदम्य साहस ने पाकिस्तान के हमले को वहीं थाम दिया।
 
दुश्मन ने भी की सेखों के पराक्रम की तारीफ

उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 28 बरस थी। छोटी सी उम्र में ही उन्होंने पराक्रम की ऐसी कहानी लिख दी है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय माता के इस सपूत के साहस ने दुश्मन का मनोबल तोड़ दिया था। मरणोपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। वह भारतीय वायुसेना के पहले और एकमात्र अफसर बने जिन्हें यह सम्मान मिला। उनकी वीरता के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। पाकिस्तान की वायुसेना के रिटायर्ड एयर कोमोडोर कैसर तुफैल ने अपनी किताब ग्रेट एयर बैटल्स ऑफ पाकिस्तान में निर्मलजीत सिंह सेखों के पराक्रम का बयान किया है। सेखों के विमान को मार गिराने वाले पायलट सलीम बेग मिर्जा ने भी अपने एक लेख में सेखों की बहादुरी और हुनर की तारीफ की।

Tuesday 14 July 2020




राष्ट्रीय स्वयंसेवक #संघ के चौथे #सरसंघचालक महान चिंतक, समाज सुधारक, आदरणीय प्रो. राजेन्द्रसिंह उर्फ़ रज्जू भैया जी की #पुण्यतिथि पर उन्हें शत् - शत् #नमन#RajjuBhaiya #RSS #Its_Kamboj #RamshankarKatheriya #BJP4India #BJP4Punjab #BJPPunjab

Prof. Rajendra Singh

Sarsanghchalak of the Rashtriya Swayamsevak Sangh
In office
1994–2000
Preceded byMadhukar Dattatraya Deoras
Succeeded byK. S. Sudarshan
Personal details
Born29 January 1922
Bulandshahar, United Provinces, British India
Died14 July 2003 (aged 81)
Pune, Maharashtra, India
Alma materAllahabad University
Rajendra Singh (राजेन्द्र सिंह ठाकुुर, 29 January 1922 – 14 July 2003 ), popularly called Rajju Bhaiya, was the fourth Sarsanghchalak of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS). He was chief of that organisation between 1994 and 2000.[1] Rajendra Singh was the first non-Maharashtrian and non - Brahmin Sarsanghchalak of the RSS.[2]
He worked as a professor and head of the Department of Physics at Allahabad University but left to devote his life to the RSS in the mid-1960s.

Early life

Rajendra Singh was born to Jwala Devi and Balbir Pratap Singh on 29 January in either 1921[3] or 1922 in village banail district buladshahar city of state Uttar Pradesh, when his father was posted there as an engineer.[4] Originally his father Balbir Pratap Singh belonged to village Banail Pahasu of Bulandshahr district.[3] He was a Rajput by caste.[3]
Singh matriculated from Unnao.[5] After that he was enrolled at the Modern School (New Delhi) for a brief period before moving to St Joseph's College, Nainital. Progressing to Allahabad University, he obtained B.Sc.,M.Sc. and Ph.D. degrees.[3]

Academic career

Singh was acknowledged as an exceptionally brilliant student by Sir C. V. Raman, the physicist and Nobel Prize-winner, when he was his examiner in M.Sc. He also offered Singh a fellowship for advanced research in nuclear physics.[5][6]
He joined Allahabad University after majoring in Physics to teach Spectroscopy.[7] He taught at the university for several years, where later he was appointed head of the Physics Department.[5]
Singh was also considered an expert in nuclear physics which was very rare those days in India.[8] He was a very popular teacher of the subject, using simple and clear concepts.[5]

Association with RSS

Singh was active in the Quit India Movement of 1942 and it was during this time that he came in contact with the RSS.[5][9] The Sangh influenced his life thereafter. He resigned from his university post in 1966 and offered full-time services to the RSS as a pracharak.[5][10]
Beginning in Uttar Pradesh, Singh progressed to be the Sar-karyavaha (General Secretary) in the 1980s.[5] In March 1994, Madhukar Dattatraya Deoras, the third chief of RSS, decided to retire on health grounds, becoming the first RSS chief ever to relinquish the post. He appointed Singh as his successor.[11] Sheshadri was appointed second-in-charge, as Sarkaryawah.
While in Uttar Pradesh, Singh worked with Lal Bahadur Shastri, Chandra Shekhar and V.P. Singh.[11]
Arguably Rajju Bhaiya’s term of six years was one of the most crucial for both Sangh and India. Singh shared an excellent rapport with political leaders, cutting across ideological lines, as well as with academics, social workers and intellectuals.[5]
1998 saw the pragmatic shift of Indian politics when the main opposition party, the Bharatiya Janata Party (BJP) emerged as the largest party in the ruling National Democratic Alliance (NDA) coalition at the Centre. This was a crucial period for the RSS and its political wing BJP. The BJP and the RSS shared many common ideologies.[citation needed]
He gave up the post of Sarsanghchalak on account of his failing health in February 2000 and nominated K. S. Sudarshan as his successor.[5]
During emergency he went underground and toured whole India. Singh was also responsible for organizing human rights convention presided by Justice VM Tarkunde in Delhi in 1976. He was also responsible for setting up friends of India Society International.[12]

Ideology

One of the most important beliefs of Singh was: "All people are basically nice. One should deal with every person by believing in his goodness. Anger, jealousy, etc. are the offshoots of his past experiences, which affect his behavior. Primarily every person is nice and everyone is reliable."[13]
Like other Sarsanghchalaks he was a firm believer in the concept of swadeshi and empowering rural economy. Initiating the rural developmental activities, he had declared in 1995 that the utmost priority should be given in making the villages hunger-free, disease-free and educative. Today, there are over 100 villages where the rural development work done by swayamsevaks has inspired the people of surrounding villages and their experiments are being emulated by those people.[14]

Last days

Singh wanted to establish a memorial named after Bismil in Delhi, the capital of India.[15] He died on 14 July 2003 at Kaushik Ashram in Pune, Maharashtra.[5]


From Wikipedia, the free encyclopedia

Tuesday 7 July 2020

ਬੰਦ-ਬੰਦ ਕਟਵਾਉਣ ਵਾਲੇ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਇੱਕੋ-ਇੱਕ ਸ਼ਹੀਦ, ਭਾਈ ਮਨੀ ਸਿੰਘ ਕੰਬੋਜ ਜੀ ਦੇ ਸ਼ਹੀਦੀ ਦਿਹਾੜੇ ਮੌਕੇ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਮੇਰਾ ਸਨਿਮਰ ਸਤਿਕਾਰ। ਸਿਰਲੱਥ ਸੂਰੇ ਗਿਆਨਵਾਨ, ਅਤੇ ਸੱਚਖੰਡ ਸ੍ਰੀ ਹਰਿਮੰਦਰ ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਤੀਜੇ ਗ੍ਰੰਥੀ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਹਰ ਭੂਮਿਕਾ ਬੇਮਿਸਾਲ ਨਿਭਾਈ ਅਤੇ ਉਹ ਸਦਾ ਸਮੁੱਚੀ ਸਿੱਖ ਕੌਮ ਲਈ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਸਰੋਤ ਰਹਿਣਗੇ।  
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Monday 6 July 2020

देश के लिए शहीद हुए जांबाज़ स्व. कैप्टन विक्रम बत्रा जी व स्व. कैप्टन अनुज नय्यर जी की पुण्यतिथि पर सादर श्रद्धांजलि। ये दिल मांगे मोर ! कैप्टन विक्रम बत्रा के अंतिम शब्द थे 'अगर मैं युद्ध में मरता हूं तब भी तिरंगे में लिपटा आऊंगा और अगर जीत कर आता हूं तब भी तिरंगे में लिपटा आऊंगा।'
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Sunday 5 July 2020


डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने अपने विचारों और सिद्धांतों से देश की राजनीति में उच्च आदर्श स्थापित किये। उनका सम्पूर्ण जीवन देश की एकता और देशवासियों के कल्याण के लिए समर्पित रहा। आज अगर हम बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर जा पाते हैं तो इसके पीछे डॉ.मुखर्जी जी का संघर्ष और बलिदान है।